SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 754
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वोषधकर्मव्यापचिकित्साधिकारः । ... भावार्थ:-जो अपनी अज्ञनता से, आम [ कच्चा ] शोथ [ फोडे ] को अत्यंत पक्क समझकर चीर देता है अथवा जो अत्यंत पक शोथ को अपक [ आम ] समझ कर उपेक्षा कर देता है, ऐसे दोनों प्रकार के वैध अज्ञानी हैं और महापापी हैं। ऐसे वैद्यों को विद्वान् रोगी छोड देवें अर्थात् उन से अपनी इलाज न करावें । जो शोध के मामा, विदग्ध, पक, अवस्थ ओंको अच्छी तरह जानता है वहीं वैद्यों के स्वामी या वैचों में श्रेष्ठ है ॥८६॥ एवं कर्मचतुष्टयपतिविधि सम्यग्विधायाधुना । सर्वेषामतिदुःखकारणजरारोगप्रशांतिपदैः॥ केशान्काशशशांकशंख सदृशान्नीलालिमालोपमा-। न्क सत्यतमोरुभेषजगणैरालक्ष्यते सक्रिया ॥ ८७ ॥ भावार्थ:-इस तरह चार प्रकार के कर्म व उन के [ अतियोगदि होने पर उत्पन आपत्तियों के ] प्रतिविधान [ चिकित्सा ] को अच्छी तरह वर्णन कर के अब काशतृण, चंद्र, व शंख के सदृश रहने वाले सफेद केशों ( बालों) को, नील, भलिमाला [भ्रमरपंक्ति ] के सदृश काले कर ने के लिये श्रेष्ठ चिकित्सा का, सर्व प्राणियों को दुःख देने वाले जरा [ बुढापा] रोग को उपमशन करनेवाले, सत्यभूत [अव्यर्थ । औषधियों के कथन के साथ २ निरूपण करेंगे ॥ ८७ ।। पलितनाशक लेप. आम्रास्थ्यतरसारचूर्णसदृशं लोहस्य चूर्ण तयोस्तुल्यं स्यात्रिफलाविचूर्णमतुलं नीलांजनस्यापि च ।। एतच्चूर्ण चतुष्टयं त्रिफलया पकोदकैः षडणेस्तैलेन द्विगुणेन मर्दितमिदं लोहस्य पात्रे स्थितम् ॥ ८८ ।। धान्ये मासचतुष्टयं सुविहिते चोदृत्य तत्पूजयि-। स्वालिम्पत्रिफलांबुधीतसितसंकेशांच्छशांकापमान् ॥ . तत्कुर्यात्क्षणतोऽभ्रवद्रमरसंकाशानशेषान्मुखे । विन्यस्यामललोहकांतकृतसद्वत्तं तु संधारयेत् ॥ ८९ ॥ - भावार्थः--- आम की गुठली के मिंगी का चूर्ण व लोहे के चूर्ण को समभाग लेवें । इन दोनों ने बरावर त्रिफलाचूर्ण और नीलांजन [तूतिया वा सुम्मा ] चूर्ण लेवें । इन चारों चूर्णी को ( सर्व चूर्ण के साथ ) एकत्र कर इस में छह गुना त्रिफले के काढा और दुगना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy