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वातरोगाधिकारः।
(१२९)
तथोरुगतऊरुयुग्ममपि निश्चलं स्तंभयेत ॥ ___ स्ववातकृतकंटकानपि च पादहर्षे पदे ॥ १८॥
भावार्थ:-कटिप्रदेशगत दुष्टवायु जब पैरोंके कंडारा (मोटी नस) ओंको खींचता है तब कलायखंज, व पंगु नामक व्याधि को पैदा करता है जिस ( पंगु ) से, मनुष्य का अंग विकल हो जाता है अर्थात् पैरों के चलनेकी शक्ति नाश हो जाती है । यदि वह ऊरु स्थानको प्राप्त हो तो दोनों ऊरुवोंको स्तंभित करता है जिससे दोनों ऊरु निश्चल हो जाते हैं एवं पादगत वायु पादहर्ष नामक व्याधि को उत्पन्न करता है । इसका खुलासा इस प्रकार है :...-~
कलायखज-जो गमनके आरंभ में कम्पाता है लंगड़े की तरह चलाता है और पैरोंकी संधि छूटी हुईसी मालूम होती है उसे कलायखंज बातव्याधि कहते हैं ।
पंगु-दोनों पैर चलनक्रियामें बिलकुल असमर्थ हो जाते हैं । उसे पंगु [ पांगला ] कहते हैं।
ऊरुस्तम्भ- --जिसमें दोनों आरु, स्तब्ध, शीत, और चेतनारहित होते हैं । तथा इतने भारी हो जाते हैं मानों दूसरोंके पैरोंको लाकरके रख दिया हो। उनमें असह्य पीडा होती है । वह रोगी चिंता, अंगद ( अंग में पीडा ) तंद्रा, अरुचि, घर आदि उपद्रवोंसे युक्त होता है और वह अपने पैरोंको, अत्यंत कष्ट से उठाता है। इत्यादि अनेक लक्षणोंसे संयुक्त इस व्याधिको [ अन्य मतके ] कोई २ आचार्य आढयवात भी कहते हैं।
वातकण्टक-पैरोंको विषम रूपसे रखनेते वा अत्यंत परिश्रम के द्वारा प्रकुपित वायु गुल्फसंधि [ गट्टा ] को आश्रित कर पीडा उत्पन्न करता है उसे यातकण्टक कहते हैं।
पादहर्ष-जिस में दोनों पाद हर्षित एवं थोडी देरके लिए संज्ञाशून्य होते हैं। और अपने को थोडा मोटा हुआ जैसा प्रतीत होता है ॥ १८ ॥
तृनी प्रतितनी, अष्टीला व आध्मान के लक्षण । तुनिपतितनि च नाभिगुदमध्यकोशलिका- । मनुमतिविलोमकां स कुरुते मरुद्रोधिनीम् ।। तथा प्रतिसमानलामगणनामकाध्मान।
करोति भृशशूलमप्यधिकृतोऽनिलः कुक्षिणः ॥ १९॥ . भावार्थ:-प्रकुपित वात तनि प्रतितूनि तथा नाभि और गुदाके बीच में वातको रोकनेवाली अनुलोमाष्टीला ( अष्ठीला ) प्रतिलोमाष्टीला ( प्रत्यष्टीला ) नामक रोग को
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