SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १३० ) कल्याणकारके उत्पन्न करता है । कुक्षि ( उदर ) गत वायु अत्यंत शूलेोत्पादक आध्मान, प्रत्याध्मान नामक रोग को पैदा करता है। इसका खुलासा इस प्रकार है: तूनी — जो पक्काशय व मूत्राशय में अथवा दोनो में एक साथ उत्पन्न हो, नीचे (गुदा और गुह्येद्रिय) की तरफ जाता हो, गुझेंद्रिय व गुदा को फोडने जैसी पीडा का अनुभव कराता हो, ऐसी वेदना [शूल ] को तृनी नामक वातव्याधि कहते हैं । प्रतितूनी --जो शूल गुदा और गुझेंद्रिय में उत्पन्न होकर वेगके साथ, ऊपर के तरफ जाता हो, एवं पक्काशय में पहुंचता हो, उसे प्रतितूनी कहते हैं । अष्टीला - जो नाभि व गुदा के बीच में गोल पत्थर जैसी, ग्रंथि ( गांठ ) उत्पन्न हो जाती है, जो चलनशील अथवा अचल होता है, जिसके उपरिम भाग दीर्घ है, तिरछाभाग उन्नत [ऊंचा उठा हुआ] हैं, और जिससे वायु मलमूत्र रुक जाते हैं उसे अष्टीला कहते हैं । प्रत्यष्ठीला -- यह भी उपरोक्त अष्टीला सदृश ही है । लेकिन इसमें इतना विशेष है कि इस का तिरछा भाग दर्वि होता है । आध्मान — जिससे पकाशय में गुडगुड, चल चल, ऐसे शब्द होते हैं उम्र पीडा होती है, वातते भरी हुई थैली के समान, पेट [ पक्वाशय प्रदेश ] फूल जाता है उसे आध्मान कहते हैं । प्रत्याध्वान -- उपरोक्त आध्मान ही आमाशय में उत्पन्न होवें उसे प्रत्याध्मान कहते हैं । लेकिन इस से दोनों पार्श्व [ बगल ] और हृदय में किसी प्रकारकी तकलीफ नहीं होती है ||| १९ ॥ वातव्याधिका उपसंहार । स सर्वगतात बहुविधामयान्सर्वगान । करोत्यवयवे तथावयवशोफशूलादिकान ॥ किमत्र बहुना स्वभेदकृतलक्षणलक्षितै- । दैर्निगदितैर्गदाशनिनिभैः क्रियैका मता ॥ २० ॥ भावार्थ:- यदि बात सर्व देहगत हो तो सर्वांगवात, सर्वंगकम्प आदि नाना प्रकार के सर्वशरीर में होनेवाले रोगोंको उत्पन्न करता है। वहीं वायु शरीरके अवयव में प्राप्त हो तत्तदवयवों में सूजन, शूल आदि अनेक रोगोंको उत्पन्न करता है । इस बात के विषय में विशेष कहने से क्या ? स्थान आदि भेदोंके कारण जो रोग भेद होता है उनके अनुसार प्रकट होनेवाले अन्यान्य लक्षणोंसे संयुक्त, विष, बिजली जैसे शीघ्र प्राणघातक अनेक रोगोंको वह बात पैदा करता है । इन सर्व वातरोगों में [ मुख्यतया ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy