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क्षुदरोगाधिकारः।
(२७५)
भावार्य:-इसलिये भगंदर की सूजन के भेदों को देख कर उस पर अच्छीतरह से विचारकर उस के अनुकूल प्रयत्नपूर्वक शस्त्रकर्म आदि करें । भगंदर के छेदन ( की आकृति ) या तो अर्धलांगलके सदृश अथवा गोतीर्थ के समान करें ॥ ५९॥
सुखोष्णतेलन निषेचनं हितं । गुदे यदि स्यात्क्षतवदना नृणां ॥ तथानिलघ्नौषधपकभाजने ! सबाषिकेप्यासनमिष्टमादरात् ॥६०॥
भावार्थ:---यदि गुदक्षत होकर उस में वेदना हुई हो तो मंदोष्ण तेलका सिं. चन करना हितकर है। एवं वातहर औषधियों से पका हुआ बाफ सहित पानीमें बैठना भी उपयुक्त है ॥ २६० ॥
स्वेदन। सवक्रनाडीगतबाष्पतापनं । हितं शयानस्य गुदे नियोजयेत् ।। तथैवमभ्यक्तशरीरमातुरं । सुखोदकेष्वप्यगाहयद्भिषक् ॥ ६१ ॥
भावार्थः-भंगदर से पीडित रोगी की चिकित्साकेलिये यह भी उपाय है कि एक घडे में वातघ्न औषधि यों से सिद्ध कषाय को भरकर उसके मुहं बंद करें। और उस घडे में एक टेढी नली लगावें । उस नली द्वारा आई हुई बाफ से गुदा को स्वेदन करें । अथवा वातघ्नतैल से शरीर को मालिश करके कदुष्ण [ थोडा गरम ] जल को एक बडे बर्तन में डालकर उस में रोगीको बैठालें ॥ ६१ ।।
__भगदरम्न उपनाह। मुतैलदुग्धाज्यविपकपायसं । ससैंधवं वातहरौषधान्वितम् ॥ सपत्रवस्त्रनिहितं यथासुखं । भगंदरस्याहुरिहोपनाहनम् ॥ ६२ ॥
१ लांगल हल को कहते हैं जो आधा हल के समान हो उसे अर्धलांगल कहते हैं |
२ इस के विषय में अनेक मत है । कोई तो चलती हुई गाय मूतनेपर जो टेढी २ लकीर होती है उसे गोतीर्थ कहते हैं। कोई तो गायकी योनि को गोतीर्थ कहते हैं। ग्रंथांतर में ऐसा भी लिखा है----
द्वाभ्यां समाभ्यां पायाभ्या छेदे लांगलको मतः ।
इस्वमेकतरं यच्च सोऽधलांगलकस्स्मृतः ॥१॥ अर्थः-जो दोनों पार्थो में समान छेद किया जावे उसे " लांगलक" कहते हैं | जो एक तरफ छोटा हो वह " अर्धलांगल" कहलाता है।
पार्श्वगतेन छिद्रण छेदो गोतीर्थको भवेत् ॥ जो फंसवाडी के तरफ झुककर छेद किया जावें उसे "गोतीर्थ" कहते हैं ।
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