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महामयाधिकारः।
मूढगर्भउद्धरणविधि। पढगर्भमतिकष्टामिहांत्रा- । यंतराक्तमपहर्तुमशक्यम् ।। तन्निवेद्य नरपाय परेभ्यः । तस्य कृच्छतरतां प्रतिपाद्य ॥ ५ ॥ पिच्छिलौषधघृतप्रविलिस- । क्लहाकुंठनखरेण करेण ॥ पोद्धरेत्समुचितं कृपया त-- | गर्भिणीमपि च गर्ममहिंसन् ॥ ५५ ॥
भावार्थः ---आंतडी यकृत् प्लीहा आदिके बीच में रहनेवाले मुढगर्भको निकालना अति कठिन व दुपाध्य काम है । इसलिये वैद्य को उचित है कि उसकी कष्ट साध्यता को, राना व अन्य उसके बंधुबांधयों से कहकर लिबलिबाहट फिसलनेवाले ] औषध और घी को, नाखून कटे हुए हाथों में लेपका, अंदर हाथ डालकर योग्य रीतीसे, दयाद्रहृदय होते हुए निकाल लें। परंतु ध्यान रहें कि गर्भिणी व उसाके गर्भ को कुछ भी बाधा न पहुंचे ॥ ५४ ।। '५५ ।।
वर्तनातिपरिवर्तनविक्षे- । पातिकर्षणविशेषविधानः । आहरेदसुहरं दृढगर्भ । श्रावयेदपि च मंत्रपदानि ॥ ५६ ॥
भावार्थ:----माताके प्राण को घात करनेवाले मूढगर्भको निकालनेके लिये जिस समय वह अंदर हाथ डाले उस समय बच्चे को जैसा रहे वैसा ही खींचना, उसको बदलकर खींचना; सरकाकर खींचना व एकदम खींचना आदि अनेक विधानोंसे अर्थात् प्राण हरभेवाले मृढगर्भकी जैसी स्थिती हो तदनुरूप विधानों (जिससे विना बाधा के शीघ्र निकल आयें ) के द्वारा बाहर निकालना चाहिये ॥ ५६ ॥ .
लांगलाख्यवरभेषजकल्क । लेपयेदुदरपादतलान्युन्- । मत्तमूलमथवा खरमंज- । श्चि साधु शिरसि प्रणिधेयम् ॥५७।।
भावार्थ:-कलिहारीकी जडके कैल्क बनाकर गर्भिणीके पेट व पादतलमें लेपन करना चाहिये, धतरेकी जड व चिरचिरेकी जड़को मस्तकपर रखना चाहिये ॥५७॥
सुखप्रलवार्थ उपायान्तर ।' तीर्थकृत्पवरनामपदेवा । मंत्रितं तिलजपानमनूनम् ॥ चापपत्रमथ योनिमुखस्थं । कारयेत्सुखतरप्रसवार्थम् ॥५८॥
भावार्थः-- तीर्थकर परमदेवाधिदेव के पवित्र नामोच्चारणसे मंत्रित तेल गर्भि णीको पिलाना चाहिये । तथा योनीके मुखमें चाषफाको रखना चाहिये । उपरोक्तकीयाओंसे सुग्वपूर्वक शीश ही प्रसत्र होता है ।।५८।।
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