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( ३०५ )
कल्याणकारके
पवनकृतविशेषादानने स्वच्छमल्पं । त्वचि भवति सुकृष्णं मंडलं व्यंगसंज्ञम् ॥ ५४ ॥
भावार्थ:- रक्त व पित्तके उद्रेकसे, अतिरोष करनेसे, अत्यंत दुःख करनेसे, अग्नि और धूप से तप जानेसे, सदा मनमें क्लेश होनेसे, वातके प्रकोप से मुखमें जो काला मण्डल (गोल चिन्ह ) उत्पन होता है, उसको व्यंग [ झांई ] कहते हैं ॥ ५४ ॥ ॥
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माघतिलभ्यच्छ लक्षण.
पवनरुधिरजातं माषवन्माषसंज्ञम् । समतलमतिकृष्णं सत्तिलाभं तिलाख्यं ॥ सितमसितमिहाल्पं वा महत् नीरुजं सं ।
मुखगतमपरं तद्देहजं न्यच्छमाहुः ॥५५ ॥
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भावाथः -- वातरक्त के विकारसे शरीर में उडदके आकार में होनेवाले मण्डलको मात्र [ मस्सा ] कहते हैं । समतल होकर अत्यंत काले जो तिलके समान होते हैं उन्हे तिल कहते हैं । और काला या सफेद, छोटा या बडा, मुखमें या अन्य अवयवमें, पीडा रहित जो दाग या चकत्ते होते हैं उन्हें न्यच्छ कहते हैं ॥ ५५ ॥
नीलिका लक्षण.
तदिह भवति गात्रे वा मुखे नीलिकाख्यं । बृहदुरुतरकृष्णं पित्तरक्तानिलोत्थम् ॥ तदनुविहितरक्तान्मोक्षणालेपनाद्यैः । प्रशमनमिह सम्यग्योजयेदात्मबुध्या ॥ ५६ ॥
भावार्थ:-- पित्तरक्त व वात विकारसे या मुखने बडे २ कांले जो मण्डल होते हैं उन्हें नीलिका कहते हैं । उसके लिये अनुकूल रक्तमोक्षण लेपन आदि प्रशमन विधियों का प्रयोग करके वैद्य अपनी बुद्धीसे चिकित्सा करें ॥ ५६ ॥
तारुण्यपिडका लक्षण.
तरुणपिटकिकास्ताः श्लेष्मजाः यौवनोत्थाः । बहलविरलरूपाः संभवस्याननेऽस्मिन् ॥ मतियुतमुनिभिस्साध्याः कफध्नैः प्रलेपै- । रनवरतमहानस्यप्रयोगरनेकैः ॥ ५७ ॥
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