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( -३१८ )
कल्याणकारके
अथ मुखरोगाधिकारः
मुखरोगों के स्थान.
मुखे विकारायतनानि सप्त तत् । यथा तथोष्ठौ दशना सजिह्वया || स्वदंतमूलानि गलः सतालुकः । प्रणीतसर्वाणि च तेषु दोषजाः ॥ ४४ ॥
भावार्थ:- मुखमें व्याधियोंके आधारभूत स्थान सात बतलाये गये हैं । जैसे कि दो ओठ, दांत, जिह्वा, दं. मूल, गला, ताल, इस प्रकार सात हैं । उन सबमें दोषज विकार उत्पन्न होते हैं ॥ ४४ ॥
अष्टविध ओष्ठ रोग.
पृथक् समस्तैरिह दोषसंचित- । रसृग्विमिश्रैरभिघाततोपि वा ॥ समांसमेदोभिरिहाष्टभेदतः । सदोषकोपात्प्रभवति देहिनां ॥ ४५ ॥ भावार्थ:-- बात, पित्त, कफ, सन्निपात, रक्त, अभिघात, मांस व मेदा इनके विकार से प्राणियों के ओठमें आठ प्रकारके रोगोंकी उत्पत्ति होती है ॥ ४५ ॥
वातपित्त, कफज, ओष्ठ रोगों के लक्षण.
सवेदनौ रूक्षतरातिनिष्ठुरौ । यदैवमोष्ठौ भवतस्तु वातजौ || सदाहपाकौ स्फुटितौ च पित्तज गुरू महांतौ कफतोतिपिच्छिलो ॥४६॥
भावार्थ:- दोनों ओंठ वेदनासहित अत्यंत रूक्ष व कठिन होते हैं उन्हे वातज विकारसे दूषित समझें । जब उनमें दाह होता हो और पक गये हो एवं फूट गये हों उस समय पित्तज विकारसे दूषित समझें । बडे व भारी एवं चिकने जिस समय हों उस समय कंफज विकारसे दूषित समझें ॥ ४६ ॥
सन्निपात रक्तमांस मेदोत्पन्न ओष्टरोगोंके लक्षण.
समस्तलिंगाविह सन्निपातजा - । वसृक्प्रभूतौ स्रवतोऽतिशोणितौ ॥ स्थिरावतिस्थूलतरौ च मांसजौ । वसाघृतक्षौद्रनिभौ च मेदसा ॥ ४७ ॥
भावार्थ:- उपर्युक्त समस्त ( तीन दोषोंके ) चिन्ह जिसमें पाये जाय उसे सन्निपातज ( ओष्ठ रोग ) समझें । रक्त विकारसे उत्पन्न ओष्ठ रोग में ओठोंसे रक्तस्राव होता है | जब स्थिर व अत्यंत स्थूल ओंठ हो तो मांसज समझे । चरत्री, घी, व मधुके समान जब ओंठ हो जाते हैं उसे मेदोविकार से उत्पन्न समझें ॥ ४७ ॥
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