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क्षुदरोगाधिकारः
(३१९)
सर्वओष्ठरोग चिकित्सा. दलत्स्वरूपावतिशोफसंयुता- 1 विहाभिघातप्रभवामरौ गतौ ॥ यथाक्रमाद्दोषचिकित्सितं कुरु । प्रलेपसंस्वेदनरक्तमोक्षणैः ॥ ४८ ॥
भावार्थ:-आठों में चोट लगनेसे चिरजाये एवं अधिक सूजनसे संयुक्त हो तो उसे अभिवातज ओष्ठरोग समझें । इस प्रकार क्रम से जो ओष्ठरोगोंका वर्णन किया है उनको तत्तदोषोपशामक औषधियोंके प्रयोगसे, लेपन, स्वेदन व रक्तमोक्षण आदि विवियोंसे ( जहां जिसकी जरूरत पडे ) चिकित्सा करें ॥ १८ ॥
इहोष्ठकोपान्वृषवृद्धिमार्गतः । प्रसादयेद्ग्रंथिचिकित्सितेन वा ॥ निशातशस्त्रौषधदाहकर्मणा । विशेषतः क्षारनिपातनेन वा॥४९॥
भावार्थ:---उपर्युक्त ओष्ठविकारों की वृषण वृद्धिकी चिकित्सा क्रमसे अथवा प्रधिरोगकी चिकित्सा क्रमसे या शस्त्रकर्म औषधप्रयोग व दाह क्रियासे या विशेषतः क्षार प्रयोगसे चिकित्सा करके ठीक करना चाहिये ॥ ४९ ॥
दंतरोगाधिकारः । अष्टविध दंतरोग वर्णन प्रतिक्षा व दालनलक्षण. अथाष्टसंख्यान् दशनाश्रितामयान् । सलक्षणस्साधुचिकित्सितैब्रुवे ॥ विदारयंतीव च दंतवेदना । स दालनो नामगदोऽनिलोत्थितः ॥ ५० ॥
भावार्थ:--अब आठ भेदसे युक्त दंतरोगका लक्षण व चिकित्सा को कहेंगे। दंतका विदारण होता हो जैसी वेदना जिसमें होती हो वह वात विकारजन्य दालन नामक दंत रोग है ॥ ५० ॥
कृमिदतलक्षण. यदा सितच्छिद्रयुतोतिचंचलः । परिस्रवान्नित्यरुजोऽनिमित्ततः ॥ स कीटदन्तो मुनिभिः प्रकीर्तित- । स्तमुद्धरेदाशु विशेषबुद्धिमान् ॥५१॥
भावार्थ:--जिस समय दांतोमें काली छिद्र सूराक हो जाय दांत अत्यधिक चंचल हो, उन में से पूय आदिकासाव होता हो विना विशेष कारण के ही, हमेशा पीडा होती हो, इसे मुनीश्वरीने वृमिदंत कहा है । इस कृमिदंत को बुद्धिमान वैद्य शीन ही उखाड देवें । क्यों । औषधियोसे यह ठीक नहीं हो पाता ।। ५१ ॥
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