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क्षुद्ररोगाधिकारः।
याप्यस्स्यासनरपि तज्ज एव काचः। स्यंदाख्योप्यधियुतमन्यनामरोगः ॥ २३७॥ क्लिष्टोऽयं निगदितवमै लोहितार्म ।। प्रख्यातं क्षतवियुतशुक्लमर्जुनाख्यं । पर्वण्यंजन कृतनामिका शिराणां ॥ जाल यत्पुनरपि हर्षकोत्पाती ॥ २३८ ॥ साध्यास्ते रुधिरकृतामयादशान्येऽ।
प्येकच प्रकटितलक्षणाः प्रताः ।। भावार्थ:--रक्तसे उत्पन्न रोगों में, अक्षिगत रखतार्श, सम्रणशुक्ल, रक्तस्राव अजकजात ये चार रोग असाध्य होते हैं । रक्तज काच यह एक याप्य है । रक्ताभिष्यंद, रक्तजाधिमंथ, क्लिष्टवर्म, लोहिताम, अत्रणशुक्ल [शुक्र] अर्जुन, पर्वणी, अंजननामिका, शिरा जाल, शिराहर्ष, शिरोत्पात, ये [ रक्त से उत्पन्न ] ग्यारह नेत्र रोग साध्य होते हैं जिन के लक्षण पहिले प्रतिपादन कर चुके हैं ।। २३७-२३८ ॥
सन्निपातज असाध्य व याप्य रोग. आंध्यं यत्रकुलगतं च सर्वजेषु.। स्रावोऽपि प्रकटितपूयसंप्रयुक्तः ॥ २३९ ॥ पाकोऽयं नयनगतोऽलजी स्वनाम्ना॥ चत्वारः परिगदिताश्च वर्जनीयाः । काचश्च प्रकटितपक्ष्मजस्तु कोपो ।
वर्तीस्था द्वितयमपीह यापनीयम् ।। २४० ॥ भावार्थः ---त्रिदोपज रोगों में नकुलाध्य, पूयस्राव, नेत्रपाक, अलजि ये चार प्रकार के रोग असाध्य हैं। एवं पक्षमकोप, काच नामक पक्ष्मज रोग एवं वर्मस्थ दोनों प्रकारके रोग भी याप्य होते हैं ॥ २३९ ॥ २४ ॥
सन्निपातज साध्यरोग. वावप्रथलबिबंधकच, वर्मा। प्रक्किन्नं यदपि च (१) पिल्लिकाक्षि साक्षात् ।। या प्रोक्ता निजपिडिका सिरासु जाता ।।
स्नायवर्माप्यधियुतमांसकार्य सम्यक् ॥२४१॥ १ कृष्ण इति पाठांतरं । . .
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