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क्षुद्ररोगाधिकारः
(४०५)
तृष्णादाहप्रकटगुणयुक् सत्पतिश्यायमेनम् ।
पित्तोदूतं विदितनिचिन्हैवदेद्वेदवेदी ॥ ९० ॥ भावार्थ:- जिसमें मस्तकसे पीत व उष्ण दुष्टस्राव एकदम बहता हो, नाक से धुंआ व अग्नि के समान गरम निवास निकलता हो एवं तृप्णा, दाह व अन्य पित्त के लक्षण प्रकट होते हों, उसे शास्त्रज्ञ वैद्य पित्त के विकार से उत्पन्न प्रतिश्याय रोग कहें अर्थात् ये पित्तज प्रतिश्याय के लक्षण है ॥ १० ॥
कफजप्रतिश्याय के लक्षण. उन्टनाक्षो गुरुतरंशिरः कंठताखाष्टशीर्ष- । कंड्रायः शिशिरबहलश्वेतसंसारयुक्तः ॥ उष्णप्रार्थी घनतरकफोर्बुधनिश्वासमार्गों।
श्लेष्मोत्थेऽस्मिन् भवति मनुजोऽयं प्रतिश्यायरोगे ॥९.१५ भावार्थ:-जिसमें इस मनुष्य की आंख के ऊपर सूजन हो जाती है, शिर भारी होजाता है, कंठ, तालु, ओंठ व शिरमें खुजली चलती है, नाकसे ठण्डा गाढा व सफेद स्राव बहता है, उष्ण पदार्थों की इच्छा करता है। निश्वासमार्गमें अति घन गाढा] कफ जम जाने के कारण, वह वंद रहता है, उसे कफ विकारसे उत्पन्न प्रतिश्याय रोग समझना चाहिये ॥ ९१ ॥
रक्तज प्रतिश्याय लक्षण. रक्तस्रावो भवति सततघ्राणलस्ताम्रचक्षु- । वक्षोधातः प्रतिदिनमतः पीडितस्स्यान्मनुष्यः ॥ सर्व गंध स्वयर्यापह महापूतिनिश्वासयुक्तो ॥
नैवं वेत्ति प्रबलरुधिरोत्थभतिश्यायरोगी ॥ ९२ ॥ भावार्थ:-रक्त विकार से उत्पन्न प्रतिश्यायरोग में नाक से सदा रक्तस्राव होता है। आंखे लाल हो जाती हैं । प्रतिदिन वह उर:क्षतके लक्षणोंसे युक्त होता है। स्वयं दुर्गध निश्वास से युक्त रहनेसे और समस्त गंध को वह समझता ही नहीं ।। ९२॥
___सन्निपातज प्रतिश्याय लक्षण. भूयो भूयस्स्वयमुपशमं यात्यकस्माच शीघ्रं । भूत्वा भूत्वा पुनरपि मुहुर्यः प्रतिश्यायनामा ॥ पक्वो वा स्यादथ च सहसापक्व एवात्र साक्षात् ।। सोयं रोगो भवति विषमस्सर्वजस्सर्वलिंगः ॥ ९३ ॥
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