________________
(४०६)
कल्याणकारक
भावार्थ:-जो प्रतिश्याय बार २ होकर अकस्मात् शीघ्र पक कर अथवा विना पक्व के ही उपशम होता है, फिर बार २ होकर मिटता है एवं जिसमें सर्वदोषोंके चिन्ह प्रकट हो जाते हैं, इसे सन्निपातज प्रतिश्याय कहते हैं ।। ९३ ॥
दुष्टप्रतिश्यायलक्षण. शीघ्र शुष्यत्यथ पुनरिह क्लेियते चापि नासा । स्रोतो रोधादतिबहुकफो नाते तत्क्षणेन ॥ वैकल्यं स्यात् जति सहसा प्रतिनिश्वासयोगा- ।
द्धं सर्व स्वयमिह नवेत्त्येव दुष्ठाख्यरोगी ॥ १४ ॥ भावार्थ-जिस में नासारंध्र शीघ्र सूख जाता है पुनः गीला हो जाता है वृद्ध कफ स्रोतोंको रोक देता है, अतएव नाक रुक जाता है और कभी सहसा खुल जाता है । निश्वास दुर्गध होने के कारण उसे किसी प्रकार का गंध का ज्ञान नहीं होता है। इसे दुष्प्रतिश्याय रोग कहते हैं ॥ ९४ ॥
प्रतिश्यायकी उपेक्षा का दोष. सर्वे चैते प्रकटितगुणा ये प्रतिश्यायरोगा । अर्दोषप्रमथनगुणोपेक्षिताः सर्वदैव ॥ साक्षात्कालांतरमुपगता दृष्टतामेति कृच्छाः ।
प्रत्याख्येया क्षयविषमरोगावहा वा भवंति ॥ ९५ ॥ भावार्थ:-ये उपर्युक्त सर्व प्रकार के जिन के लक्षण आदि कह चुके हैं ऐसे प्रतिश्याय रोगों के अज्ञानसे दोष दूर नहीं किया जायगा अर्थात् सकाल में चिकित्सा न कर के उपेक्षा की जायगी तो कालांतरमें जाकर वे बहुत दृषित होकर कष्टसाध्य, वा प्रत्याख्येय [ छोडने योग्य ] हो जाते हैं अथवा क्षय आदि विषम रोगों को उत्पन्न करते हैं ॥ ९५ ॥
प्रतिश्यायचिकित्सा. दोषापेक्षाविहितसकलेभपेजस्संभयुक्तो।। सर्पिःपानाच्छमयति नवोत्थं प्रतिश्यायरोग । स्वेदाभ्यंगत्रिकटुबहुगण्डूषणैः शोधनायेंः । पकं कालाधनतरकर्फ स्रावयेन्नस्यवगैः । ९६ ॥
१ पैद्य इति पाडात
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org