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________________ कल्याणकारके मूनि व्याप्ताः पवनकफपित्तासृजस्ते पृथग्या । क्रुद्वा कुयुर्निजगुणयुतान् तान् प्रतिश्यायरोगान् ॥ ८७ ॥ भावार्थ:- अभीतक हिका रोगके लक्षण, चिकित्सा आदि को विधिपूर्वक कहकर, अब प्रतिश्याय ( जुखाम ) रोग के समूह को उन के समस्त लक्षण व योग्य औषधियों के साथ वर्णन करेंगे। मस्तक में व्याप्त वात, कफ, पित्त व रक्त व्यस्त या समस्त जिस समय कुपित होजाते हैं वह अपने गुण से युक्त प्रतिश्याय नामक रोगोंको उत्पन्न करते हैं ॥ ८७ ॥ प्रतिश्याय का पूर्वरूप. म्यादत्यंत शवथुरखिलांगप्रमर्दो गुरुत्वं । मूर्ध्निस्तम्भः सततमनिमित्तैस्तथा रोमहर्षः ॥ तृष्णाद्यास्ते कतिपयमहोपद्रवारसंभवति । प्राग्रूपाणि प्रभवति सतीह प्रतिश्यायरोगे ।। ८८॥ भावार्थ:- प्रति.श्य य रोग उत्पन्न होने की सम्भावना हो तो, [ रोग होने के पहिले २ ] छींक आती है, संपूर्ण अंग टूटते हैं, शिर में भारीपना रहता है, अंग जकड जाते हैं, बिना विशेष कारण के ही हमेशा रोमांच होता रहता है, एवं प्यास आदि अनेक महान् उपद्रव होते हैं । ये सब प्रतिश्याय के पूर्वरूप हैं ।। ८८ ॥ __ वातज प्रतिश्यायके लक्षण. नासास्वच्छसुतिपिहितविरूपातिन व कण्ठे ॥ शोषस्तालन्यधरपुटयोश्शंखयोशातितोदः । निद्राभंगः क्षवथुरतिकष्टस्वरातिप्रभेदी ॥ वातोभते निजगुणगणः स्यात्प्रतिश्यायरोगे ।। ८९ ॥ भामार्थः-नाक से स्वच्छ [ पतली ] स्त्राव होना, नाक आन्छदित, विरूप व बंदसा होना, गला, तालू व ओठ सूख जाना, कनपटियोमें सुई चुभने जैसी तीन पीडा होना, निद्रानाश, अधिक छींक आना, गला बैठ जाना एवं अन्य बातोद्रेक के लक्षण पाया जाना, ये घातज प्रतिश्याय के लक्षण हैं ।। ८९ ।। पित्तज प्रतिश्याय के लक्षण पीतस्सोष्णस्त्रवति सहसा स्रावदुष्टोत्तमांगाद् । घ्राणाद्धमज्वलनसदृशो याति निवासवर्गः ॥ FaceurmararentraliaRentarmunitaMIRLIAMELATESARIYOTISH ARIArammmm mmuni smamremRADIANPrasaramL09ace १ उपरोक प्रकार वातज, पित्तज, कफज, निपातज, रजाज इस प्रकार जुखाम का पांच भेद हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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