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________________ वातरोगाधिकारः। (१२५) तो गुद व मूत्राशयगत मलावरोध, मूत्रावरोध, मूत्रकृच्छ्र इत्यादि महान् रोगोंको उत्पन्न करता है ॥ ६॥ थानवायु। सकृत्स तनुमाश्रितरसततमेव यो व्यान इ.। त्यनेकविधचेष्टयाचरति सर्वकर्माण्यपि ॥ करोति पवनी गदान्निखिलदहगेहाश्रितान् । स्वयं प्रकुपितस्सदा विकृतवेदनालंकृतान् ॥ ७ ॥ भावार्थ:-- जो वायु शरीर के सम्पूर्ण भाग में व्याप्त होकर रहता है उसे व्यानवायु कहते है । यह शरीर में अपनी अनेक प्रकार की चेष्टाओं को दर्शाते हुए चलता फिरता है । शरीरगत सर्वकर्मों ( रक्तसंचालन, पित्तकफ आदि कोंको यथास्थान पंहुचाना आदि) को करता है । वह कुपित होजावें तो हमेशा सर्व देहाश्रित, सर्वांगवात, वा सर्वाङ्गवध, सर्वाङ्गकम्प आदि विकृत वेदनायुक्त रोगोंको पैदा करता है ॥ ७॥ कुपितवात व रोगात्पत्ति। यथैव कुपितोऽनिलस्स्वयमिहामपकाशये। तथर कुरुते गदानपि च तत्र तत्रैव तान् । त्वगादिषु यथाक्रमादखिलवायुसंक्षोभत--- श्शरीरमथ नश्यते प्रलयवातघातादिव ॥ ८ ॥ भावार्थ:-जिसप्रकार आमशय, व पक्वाशय में प्रकुपित (समान) वायु आमाशयगत व पक्वाशयगत छर्दि अतिसार आदि रोगोंको उत्पन्न करता है उसी प्रकार त्वगादि स्वस्थानों में प्रकुपित तत्तद्वायु भी स्त्र २ स्थानगत व्याधिको यथाक्रमसे पैदा करता है। यदि ये पांचो वायु एक साथ प्रकपित होवे तो, शरीर को ही नष्ट कर देते हैं जिस प्रकार प्रलयकाल का वायु समस्त पृथ्वी को नष्ट करता है ॥ ८॥ कफ, पित्त, रक्तयुक्त वात का लक्षण । कफेन सह संयुतस्तनुमिहानिलस्तंभये ।. दवेदनमलेपनानिभृतमंगसंस्पर्शनम् ॥ सपित्तरुधिरान्वितस्सततदेहसंतापक द्भविष्यति नरस्य वातविधिरेवमत्र त्रिधा ॥९॥ भावार्थ:---यदि वायु कफयुक्त हो तो शरीर को स्तम्भन करता है। पीडा उत्पन्न नहीं करता है और स्पर्श में कठिन कर देता है। यदि पित्त व रक्तसे युक्त हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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