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________________ (७१२) कल्याणकारके - रिष्टप्रकट होने पर मुमुक्षुआत्माका कर्तव्य. एवं साक्षादृष्टरिष्टो विशिष्टस्त्यक्त्वा सर्व वस्तुजालं कलत्रं । गत्वोदीची तां दिशं वा प्रतीची ज्ञात्वा सम्यग्रम्यदेश विशालम् ॥३२॥ निर्जतुके निर्मल भूमिभागे निराकुले निस्पृहतानिमित्ते। * तीर्थे जिनानामथवालये वा मनोहरे पवने वने वा ॥ ३३ ॥ विचार्य पूर्वोत्तरसद्दिशां तां भूमौ शिलायां शिकतासु वापि । विधाय तत्क्षेत्रपतेस्मुपूजामभ्यर्चयेज्जैनपदारविंदम् ।। ३४ ॥ एवं समभ्यर्च्य जिनेंद्रद्वंदं नत्वा सुदृष्टिः प्रविनष्टभीतिः। ध्यायेदथ ध्यानमपीह धर्म्य संशुक्लमात्मीयबलानुरूपम् ॥३५॥ एवं नमस्कारपदान्यनूनं विचिंतयेज्जैनगुणेकसंपत् । ममापि भूयादिति मुक्तिहेतून् समाधिमिच्छन्मनुजेषु मान्यः ॥ ३६ ॥ .. भावार्थ:-उपर्युक्त प्रकार के लक्षणोंसे युक्त रिष्टों को प्रत्यक्ष देखने पर विवेकी पुरुष को उचित है कि वह अपने वस्तु,वाहन, पुत्र, मित्र, कलत्र, बंधुजन आदि समस्त परिग्रहों को छ.ड. कर उत्तर या पूर्व दिशा में स्थित किसी विशाल व रम्य प्रदेश की ओर जावे । जहां के भूप्रदेश जीवोंसे रहित, पवित्र, संसार से .निःस्पृहता को उत्पन्न करने के लिये निमित्तभूत, एवं निराकुळ हो, ऐसे तीर्थस्थान, सुंदरजिनमंदिर, बगीचा, या जंगल में जाकर वहां पर पूर्व या उत्तर दिशा में, निर्मलभूमि, शिला या वाल् पर, बैठकर सब से पहिले उस क्षेत्रा के अधिपति ( क्षेत्रापाल) की पूजा करें। पश्चात् श्रीजिनेंद्र भगवान के चरणकमलों को भक्तिभावसे पूजन करें। इस प्रकार चौवीस तीर्थकरों की पूजा कर के और उन्हे नमःकार कर वह भय से रहित सम्यग्दृष्टि मनुष्य, अपनी शक्ति के अनुसार धर्म्य ध्यान व शुक्ल ध्यान को ध्यावे । वह मनुष्यों में श्रेष्ट समाधि मरण को चाहता हुआ, ध्यानावस्था में जिनेंद्र देव के विशिष्टगुणरूपी सम्पत्ति मुझे प्राप्त हो या मुझमें प्रगट हो इत्यादि दिव्य विचार या भाव से पंचपरमेठियाक दिव्य मंत्रा (पंचनमस्कार ) का एकाग्रचित्त से स्तिवन करें। [समय निकट आनेपर सल्लेखना धारण कर के फिर ध्यानारूढ होवे ] ॥३२॥३३॥३४॥३५॥३६॥ रिष्टर्वणनका उपसंहार. उग्रादित्यमुनींद्रवाक्प्रकटितं स्वस्थेषु रिष्टं विदि-।. त्वा तत्सम्मुनयो मनस्यनुदिनं संधार्य धैर्यादिकान् ।। १ सम्प्रयावा इति पाठांतरं ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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