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________________ रिष्टाधिकारः। दीख पडे तो दस महीने, कटिप्रदेश नहीं दखेि तो सात महिने कुक्षि ( कूख ) नहीं दीखे तो चार महिने, और गर्दन नहीं दीखे तो एक महीना तक ही जीता है । उसी प्रकार हाथ नहीं दीखे तो पंद्रह दिन, बाहु ( भुजा ) न दीखे तो आठ दिन, अंस ( खंदे-भुजा की जोड ) नहीं दीखे तो तीन दिन, वक्षस्थल ( छाती ] शिर और अपनी छाया नहीं दिखे तो दो दिन तक जीता है, ऐसा समझ कर बुद्धिमान् मनुष्य परिग्रह का त्याग कर दे अर्थात् दीक्षा धारण करें ॥ २७ ॥ २८ ॥ नवान्हिकादिमरणचिन्ह. भ्रयुग्मं नववासरं श्रवणयोः घोषं च सप्तान्हिकं । नासा पंचदिनादिभिर्नयनयोज्योतिर्दिनानां त्रयं ॥ मिहामेकदिनं विकारति रसह्याहारातो बुद्धिमां• स्त्यक्त्वा देहमिदं त्यजेत विधिवत् संसारभीरुःपुमान् ॥ ३० ॥ भावार्थ:- दोनों भ्रूवों के विकृत होनेपर मनुष्य नौ दिन, कान में समुद्रघोष सदृश आवाज आने पर सात दिन, नाक में विकृति होनेपर पांच या चार दिन, आंखों की ज्योति में विकार होनेपर तीन दिन और रसनेंद्रिय विकृत होनेपर एक दिन जी सकता है। इस को अच्छी तरह समझ कर संसार से भीनेवाला बुद्धिमान् मनुष्य को उचित है कि वह शास्त्रोक्तविधि प्रकार देह से मोह को छोडकर शरीरका परित्याग करें । अर्थात् सल्लेखना धारण करें ।। ३० ॥ मरणका विशषलक्षण. हग्भ्रांतिस्तिमिरं दृशस्फुरणता स्वेदश्च बक्त्रे भृशं । स्थैर्य जीवसिरासु पादकरयोरत्यंतरोमोद्गमं ॥ साक्षाद्वारेमलप्रवृत्तिरपि तत्तीव्रज्वरः श्वाससं-1 रोधश्च प्रभवेन्नरस्य सहसा मृत्यूरुसल्लक्षणम् ॥ ३१ ॥ भावार्थ:-- मनुष्य की दृष्टि में भ्रांति होना, आंखो में अंधेरी आना, आंखों म स्फुरण व आंसूझा अधिक रूप से बहना, मुख में विशेष पसीना आना, जीव सिराओ [ जीवनधारक रक्तवाहिनी रसवाहिनी आदि नाडीयों ] में स्थिरता उत्पन्न होना अर्थात् हलन चलन बंद हो जाना, पाद व हाथपर अत्यधिक रूप से रोम का उत्पन्न होना,मलकी अधिक प्रवृत्ति होना, तीने ज्वरसे पीडित होना, श्वास का रुक जाना, ये लक्षण अकस्मात् प्रकट हो जावें तो समझना चाहिये कि उस मनुष्य का मरण जल्दी होनेवाला है ॥३१॥ १. १०६ डिग्रीसे ऊपर ज्वर का होना. Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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