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वातरोगाधिकारः ।
अथ ज्वराधिकार |
ज्वरनिंदान
आहारतो विविधरोगसमुद्भवाद्वा । कालक्रमाद्विचरणादभिघाततो वा ॥ दोषास्तथा प्रकुपिताः सकलं शरीरं ।
व्याप्य स्थिता ज्वरविकारकरा भवंति ॥ ५० ॥
भावार्थ:-- मिथ्या आहारसे, अनेक रोगोके जन्म होने से, कालानुसरणसे, मिथ्याविहार से, चोट लगने से दोष ( बात पित्त कफ ) प्रकुपित होकर सारे शरीर में फेल कर ब्बर रोगको उत्पन्न करते हैं ॥ ५० ॥
वरलक्षण |
स्वेदावरोधपरितापशिरोंगमद - । निश्वासदेहगुरुतांतिमहोष्मता च ॥ यस्मिन्भवत्यरुचिरप्रतिमांनुतृष्णाः ।
सोऽयं भवेज्ज्वर इति प्रतिपन्नरोगः ॥ ५१ ॥
भावार्थ:- पसीनेका रुक जाना, संताप, शिर व शरीर टूटासा मालुम होना, अति उष्णका अनुभव होगा, अरुचि व पानी पीनेकी अत्यंत इच्छा होना ये सब ज्वरके लक्षण हैं ॥ ५१ ॥
ज्वरका पूर्वरूप |
सर्वागरुक्क्षन थुगौरव रोगहर्षा- । रूपाणि पूर्वमखिलज्वरंसभवेषु || पित्तज्वरानयनरोगविदाहशोषाः । वाताद्विजृंभणमरोचकता कफाच्च ॥ ५२ ॥
भावार्थ:-- सर्वांग में पीड़ा होना, छींक आना, शरीर भारी होजाना, रोमांच होना, यह सब ज्वरोके पूर्वरूप हैं। नयनरोग आंख आना आदि ) नेत्र शरीरमें 'दाइ होना, सोप ये सब पित्तअरके पूर्वरूप हैं। बातरोगका पूर्वरूप जंभाई आना है। अरुचि होना यह कफ उबरका पूर्वरूप है ॥ ५२ ॥
वातज्वरका लक्षण |
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हृत्पृथुगात्रशिरसामतिवेदनानि । विरंभ रूसविरतत्वविजभणानि ।
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