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कल्याणकारके
कुटिल रहता है, वे मिथ्यादृष्टि होकर चाडीखोर भी हुआ करते हैं, सदा अज्ञानके वर्शाभूत रहते हैं, दूसरोंके दोष को ढूंडते रहते हैं एवं दूसरोंको अपने कृत्योंसे बाधा पहुंचाते रहते हैं, इसलिये ऐसे नीच मनुष्य जहरीले सर्पके समान हैं, ॥ १४ ॥
केचित्पुनः स्वगृहमान्यगुणाः परेषां दुष्यंत्यशेषविदुषां न हि तत्र दोषः पापात्मनां प्रकृतिरेव परेष्वमूया
पैशुन्यवाक्परुषलक्षणलक्षितानाम् ॥ १५ ॥ भावार्थ:- कितने ही दुर्जन ऐसे रहते हैं कि जिनके गुण उनके घरके लोगोंको ही पसंद रहते हैं । बाहर उनकी कोई कीमत नहीं करता है । परंतु वे स्वतः समस्त विद्वानोंको दोष देते रहते हैं। मात्सर्य करना, चाडीखोर होना, कठोर वचन बोलना आदि लक्षणोंसे युक्त पापियोंका दूसरे सज्जनोंके प्रति ईर्ष्याभाव रखकर उनकी निंदा करना जन्मगत स्वभाव ही है । उससे विद्वानोंका क्या बिगडता है? ॥१५॥
केचिद्विचाररहिताः प्रथितप्रतापा :: साक्षात्पिशाचसदृशाः प्रचरंति लांक तैः किं यथाप्रकृतमेव मया प्रयोज्यं
मात्सर्यमार्यगुणवर्यमिति प्रसिद्धम् ॥ १६ ॥ भावार्थ:-कितने ही अविचारी व बलशाली दुर्जन, लोगोंको अनेक प्रकारसे कष्ट देते हुए पिशाचोंके समान लोकमें भ्रमण करते हैं । क्या उन लोगों का सामना कर उनसे मात्सर्य करना हमारा धर्म है ? क्या मत्सर करना सजनोंका उत्तम गुण है ! कभी नहीं. ॥१६॥
आचार्यका अंतरंग। एवं विचार्य शिथिलीकृतमत्सरीऽहं शास्त्रं यथाधिकृतमेवमुदाहरिष्ये सर्वज्ञवक्त्रनिसृतं गणदेवलब्धं
पश्चान्महामुनिपरंपरयावतीर्णम् ॥ १७ ॥ भावार्थ:---इसप्रकार विचार करते हुए उन लोगोंसे मत्सरभावको छोडकर मेरी की हुई प्रतिज्ञाके अनुसार सर्वज्ञोंके मुखसे निर्गत व गणवरोंके द्वारा धारित एवं तदनंतर महायोगियों की परम्परा से इस भूतलपर अवतरित इस शास्त्रको कहूंगा ॥ १७ ॥
१ मात्सर्यमार्यगणवळमिति प्रसिद्ध इति पाठांतरं । सत्पुरुष मात्सर्यको छोडें ऐसा लोकमें प्रसिद्ध है।
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