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भेषजकोपद्रवचिकित्साधिकारः ।
(५९१ )
बंधन द्रव, स्वेदलक्षण. उष्णोषधरपि विपाचितपायसाथैः पत्रांवरावरणकैरिह बंधनाख्यः । सौवीरकांबुघृततैलपयोभिरुष्णैः स्वेदो भवेदतितरां द्रवनामधेयः ॥२४॥
भावार्थ:--उष्ण औषधियों के द्वारा पकाये हुए पायस (पुल्टिश बांधनेयोग्य ) को पत्रों, कपडे आदिसे ढककर बांधने को बंधन (उपनहन ) स्वेद कहते हैं। कांजी, पानी, घृत, तेल व दूध को गरम कर कडाही आदि बड़े पात्र में भरकर उस में रोगी को बिठाल स्नान कराकर स्वेद लाने की विधि को " द्रवस्वेद " कहते हैं ॥ २४ ॥
चतुर्विधस्वंद का उपयोग. आधौ कफप्रशमनावनिलप्रणाशी बंधवप्रतपन बहुरक्तपित्त- । व्यामिश्रिते मरुति चापि कर्फ हितं तत् सस्नेहदेहहितकदहतीह रूक्षम् ।। २५
भावार्थ:-आदि के ताप व उष्म नाम के दो स्वेद विशेषतः कफ को नाश वा उपशन करनेवाले हैं। बंबन स्वेद (उपनाह स्वेद ) वातनाशक है । द्रवस्वेद, रक्तपित्त मिश्रित, वात वा कफ में ति है। स्नेहाभ्यक्त शरीर में ही यह स्वेद हितकर होता है, अर्थात् तैल आदि चिकने पदार्थोंसे मालिश कर के ही स्वेदन क्रिया करनी चाहिये। वहीं हितकर भी है। यदि रूक्षशरीरपर स्वेदकर्म प्रयुक्त करें तो वह शरीर को जलाता है ॥२५॥
स्वेदका गुण व सुस्वेदका लक्षण. वातादयस्सततमेव हि धातुसंस्थाः रनहायोगवशतः स्वत एव लीनाः। स्वदैवत्वमुपगम्य यथाक्रमेण स्वस्था भवत्युदरगास्स्वनिवासनिष्ठाः॥२६
भावार्थ:-जो सतत ही धातुओं में रहते हैं, एवं स्नेहन प्रयोगद्वारा अपने आप ही स्वस्थान से ऊर्च, अध व तिर्यग्गामी होकर मार्गों में लीन हो गये हैं, वे वातादि दोष योग्य वेदन क्रिया द्वारा द्रवता को प्राप्त कर, क्रमशः उदर में पहुंच जाते हैं । ( और वमन विरेचन आदि के द्वारा उदर से बाहर निकल कर ) स्वस्थ हो जाते हैं और यथास्थान को प्राप्त करते हैं ॥ २६ ॥
स्वेद गुण. स्वेदैरिहाग्निरभिवृद्धिमुपैति नित्यं स्वदः कफानिलमहामयनाशहेतुः। प्रस्त्रवदमाशु जनयत्यतिरूदेहे शीतार्थितामपि च साधुनियोजितोऽसौ ॥
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