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कल्याणकारके
भावार्थ:-जिस का उदर रूक्ष व क्रूर [ क्रूर कोष्ठ ] हो और वह अधिक दोषों से व्याप्त हो, ऐसे मनुष्य को (प्रमाण में ) अल्प व मृदु औषध का प्रयोग करदें तो, वह सम्पूर्ण दोषों को निकाल ने के लिये समर्थ नहीं होता है । अत एव वह दोषों को उत्क्लेशित करके, दुर्बलता, अरुचि, शरीर में थकावट व विष्टम्भ ( साफ दस्त न आना ) को उत्पन्न करते हुए, वेदना के साथ हमेशा (बहुदिन तक ) पित्तकफ को स्रावण कराता ( बाहर निकालता ) रहता है अर्थात् कफ पित्त मिश्रित थोडे २ बहुत दिन तक दस्त लाता है । इसे संस्राव अथवा परिस्राव कहते हैं ॥ ७९ ॥
परित्रावव्यापत्तिचिकित्सा. तं च सावविकारमत्र शमयेत्सांग्राहिकर्मेषजेः । मोक्तैरप्यथ वक्ष्यमाणविषयैस्संस्थापनास्थापनैः ।। क्षीरेण प्रचुराजमोदशतपुष्पाचूर्णितेनाज्यसं- ।
मिश्रेणोष्णविशेषशाल्यशनमत्यल्पं समास्वादयेत् ॥ ८०॥ भावार्थ-इस परिस्राव रोग को, पूर्वोक्त सांग्रीहिक औषधोंसे ( दस्त को बंद करनेवाले औषध जायफल आदि ) एवं आगे कहे जानेवाले, दस्तको बंद करनेवाले आस्थापन बस्तियोंसे उपचार करें । तथा अजवायन, सोंफके चूर्ण व घृतमिश्रित व उष्णगुणयुक्त चावल के भात को दूध के साथ थोडा खिलावें ॥ ८ ॥
प्रवाहिका लक्षण. स्निग्धो वातिनिरूक्षितश्च पुरुषः पीत्वात्र संशोधनं । योऽप्राप्तं तु मलं बलाद्गमयति प्राप्तं च संधारयेत् ।। तस्यांतस्मुविदाहशूलबहुलश्वेतातिरक्तासिता ।
श्लेष्मा गच्छति सा प्रकारसहिता साक्षाद्भवेद्वाहिका ॥८१॥ भावार्थ:-अत्यंत स्निग्ध, अथवा रूक्षित (रूखापने से युक्त ) मनुष्य, विरेचन का औषध पीकर, मल बाहर न आते हुए देख उसे बाहर लाने के लिये, बलात्कार पूर्वक कोशिश करता है अर्थात् प्रवाहण करता है, अथवा बाहर निकलते हुए मल के वेग को रोक लेता है तो, उस के पेट से, दाह व शूलसंयुक्त, सफेद, लाल वा काले रंग का कफ बाहर [बार २] निकल ने लगता है। इसे प्र से युक्त वाहिका, अर्थात् प्रवाहिका कहते हैं ॥ ८१ ॥
१ सांग्राहक-कफ पित्तस्रावस्तंभक, ऐसा भी अर्थ होता है।
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