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भैषजकोपचिकित्साधिकारः ।
(६०९)
यस्मिन्बस्तिगुदेऽतितोदमपि तं स्नेह्यातिसंस्वेदयन् । नाना ह्यौषधवर्तिमग्निकरसबस्ति च संयोजयेत् ॥ क्षीणेनाल्पतराग्निनातिमृदुकोष्ठेनातिरुक्षौषधं । पीतं पित्तयुतानिलं च सहसा सन्दष्य संपादयेत् ।। ७७ ॥ अत्युग्रां परिकर्तिकामापि ततः संतापसंवर्तन । कुक्षौ मुत्रपुरीषरोधनमतो भक्तारुचिर्जायते ।। तं तेलाज्ययुतेन यष्ठिमधुकारेण चास्थापयेत् ।
क्षीराज्यैरनुवासयदनुदिन सारण संभोजयेत् ॥ ७८ ॥ भावार्थ:----संशोधनऔषधि को संवन कराने पर यदि जीवनदायक रक्त निकल आवे तो उसे जीवादान कहते हैं। ऐसा होने पर उसे शीचिकित्सा करें, एवं रक्त को स्तम्भन करनेवाले शीतऔषधोंका प्रयोग करे । आध्मान- जिस को अजीर्ण होगया हो ( खाया हुआ भोजन नहीं पचा हो ) और कोप्ट में वायु अधिक हो उस हालत में यदि संशोधनार्थ रूक्ष औषध पीचे तो वह आध्मान (पेट अफरा जाना) को उत्पन्न उत्पन्न करता है, जिस से अधोवायु, मल, मूत्र रुक जाते हैं। अस्ति [ गूत्राशय ] व गुदाभाग में सुई चुभने जैसी भयंकर पीडा होती है। ऐसा होनेपर उसे स्नेहन, स्वेदन करके नानाप्रकार के औषधियों से निर्मित वर्ति [ बत्ति और अग्निवृद्धिकारक श्रेष्ठ बस्तिकी योजना करें। परिकर्तिका-दुर्बल मनुष्य, जिस का अग्नि मंद हो और कोष्ट भी मृदु हो, शोधनार्थ रूक्ष औषध पीये तो वह पित्त से संयुक्त वात [ पित्त वात ] को शीघ्र ही दृषित कर के अत्यंत भयंकर परिकर्तिका [केंची से कतरने जैसी पीडा । को उत्पन्न करता है, जिससे कुक्षि में [ पीडा के कारण ] संताप होता है। मल मूत्र रुक जाते हैं एवं भोजन में अरुचि होती है। ऐसा होने पर उसे तैल, घी, मुलैठी इन से मिश्रित दूध से आस्थापन बस्ति देये, घी दूधसे अनुवासन बस्ति का प्रयोग करें एवं दूध के साथ भोजन करावें ॥ ७६ ॥ ७७ ॥ ७८ ॥
परिस्रावलक्षण रूक्षकरतरोदरस्य बहुदोषस्याल्पमंदौषधं । दत्तं दोपहराय नालमतएवोक्तिश्य दोषास्ततः ॥ दौर्बल्यारुचिगात्रसादनमहाविष्टंभमापाद्य सं- । स्त्रावःपित्तकफौ च संततमरं संस्रावयन्नरुिजः।। ७९ ॥
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