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शास्त्रसंग्रहाधिकारः। -
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हो, जो प्रेत राक्षस आदि प्राणियों को अच्छी तरह देखता हो, जिस के ललाट पर यूक [ जू ] समूह आकर बैठ जाता हो, शिर बिना कारण रज से [ धूल आदि ] व्याप्त हो जाता हो, हनु गहरी मालूम पडती हो, नाक अल्प अथवा विकृत होगयी हो, जिसको सफेद वस्तु भी काले दिखते हों, छिद्रसहित भी छिदरहित [ ठोस ] दिखते हों, दिन, रात्रि के समान दिखता हो, बडा भी सूक्ष्मरूप से दिखता हो, मृदु भी कठिन मालुम होता हो, ठण्डा भी गरम मालुम होता हो, अर्थात् जिसे समस्त पदार्थ विपरीत गुण से दिखते हों ऐसे मरणचिन्होंसे युक्त मनुष्योंको उनके स्वभाव, चेष्टा, गुण आदियोंको से अच्छी तरह विचार कर के, उस रोगीको चिकित्सा में प्रवीण कुशल वैध साध्य रोगों को बहुत प्रयत्न के साथ साधन करें अर्थात् चिकित्सा करें॥ ४२ ॥ ४३ ॥ ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ ४६ ॥ ४७ ॥ रिष्टलक्षणका उपसंहार और मर्मवर्णन प्रतिक्षा.
पोक्तानेतानिष्टरिष्टान्मनुष्यान् । त्यक्त्वा धीमान् मर्मसंपीडितांश्च ॥ ज्ञात्वा वैद्यः प्रारभेत्तचिकित्सां ।
यत्नाद्वक्ष्ये मर्मणां लक्षणानि ॥ ४८ ॥ भावार्थ:-उपर्युक्त प्रकार के मरणचिन्हों से युक्त रोगियोंको एवं मर्म पीडासे व्याप्त रोगयोंको बुद्धिमान् वैद्य छोड़कर बाकीके रोगियोंकी चिकित्सा करें। अब बहुत यत्नके साथ मर्मों का लक्षण कहेंगे ॥ ४८ ॥
शाखागत मर्मवर्णन. क्षिम व तलहृदय मर्म. पादांगुल्यंगुष्ठमध्ये तु मर्म । क्षिप्रं नाम्नाक्षेपकेनात्र मृत्युः ॥ तन्मध्यांबल्यामानुपूर्व्य तलस्य ।
माहुर्मध्ये दुःखमृत्यु हृदाख्यम् ॥ ४९ ॥ भावार्थ:--पाद की अंगुली व अंगूठे के बीच में “ क्षिप्र” नाम का मर्मस्थान है। वहां भिरने से आक्षेपक वातव्याधि होकर मृत्यु होती है । मध्यमांगुली को लेकर पादतल के बीच में "तलहृदय" नाम का मर्म स्थान है। वहां भिदने से पीडा हॉकर मृत्यु होती है ॥ १९ ॥ .
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