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(५४२)
कल्याणकारक
यश्च समस्तलोकमपि धूमहिमांबुवृतं ।। यश्च परावलं लिखति तद्विवराकुलितं ॥ यश्च रजोविकीर्णरवि पश्यति चात्मवपुः । यश्च रुजं न घेत्ति दहनादिकृतां मनुजः ॥४३॥ यश्च न पश्यति प्रविदितपतिबिचमरं । यश्च निषेव्यते कनकमाक्षिकपद्धतिभिः ॥ यश्च दिवाकरं निशिशशिातिवन्यनिकं । यश्च शरीरिणं समुपलक्षयति प्रकटम् ॥ ४ ॥ यस्य ललाटपट्टमुपयंति च यूकगणा । यस्य शिरस्यकारणविकीर्णरजोनिचयः॥ यस्य निमग्नमेव हनुविलंबबृहद्वषणं । यस्य विनष्टहीनविकृतस्वरता च भवेत् ॥ ४५ ॥ यस्य सितं तदप्यसितवच्छुषिरं घनव-। घस्य दिवा निशेव बृहदप्यतिसूक्ष्मतरं ॥ यस्य मृदुस्तथा कठिनवद्धिममप्यहिमं । यस्य समस्तवस्तु विपरीतगुणं तु भवेत् ॥ ४६॥ सान्परिदृत्य दुष्टबहुरिष्टगणान् मनुजान् । साधु विचार्य चेष्टितनिजस्वभावगुणैः ॥ व्याधिविशेषविद्भिषगशेषभिषक्पवरः ।
साध्यतमामयान्सततमेव स साधयतु ॥ ४७॥ भावार्थ:-जो रोगी दिन रात सोता हो, जो बिलकुल नहीं सोता हो, जिस के ललाट प्रदेश में स्थित शिरायें उठी हुई नजर आती हों, जो भोजन न करने पर भी बहुत मल विसर्जन करता हो, मूर्छित न होने पर भी बडबड करते हुए गिर पडता हो, सम्पूर्ण लोक को, धूवां, ओस, व पानसे व्याप्त देखता हो, महीतल को रेखा व रंध्रों [छिद्र सूराक ] से व्याप्त देखता हो, अपने शरीर पर धूल विखेर लेता हो, (अथवा अपने शरीर को धूलि से व्याप्त देखता हो, ) अग्नि से जलने व शस्त्रादिक से भिद ने छिद ने आदि से उत्पन्न वेदनाओंको बिलकुल नहीं जानता हो, दर्पणादिक में अपने प्रतिबिम्ब को नहीं देखता हो, जिस पर [ स्नान से शरीर साफ होने के पश्चात्. भी] कनकमाक्षिक ( सुनेरी रंगवाली मख्खियां ) समूह आ बैठता हो, रात्रि में सूर्य को, दिन में चंद्र के सदृश कांतियुक्त सूर्य को व न रहते हुए भी अग्नि व वायु को देखता
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