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________________ (८६) कल्याणकारके सर्व शरीर वात से पीडित हो, एवं रक्तपित्त से पीडित हो उस अवस्थामें खुजली होजाय व शरीर कृश होजाय तो उद्वर्तन [उवटन ] सर्वदा उत्तम है ॥ १०॥ विशिष्ट उद्धर्तन गुण फेनोध्दर्षाच्छोदसंवाहनायैः ।। गात्रस्थैर्य त्वक्प्रसादो भवेच्च ॥ मेदश्लेष्मग्रंथिकण्डामयास्त । .. नस्युस्सर्वे वातरक्तोद्भवाश्च ॥ ११ ॥ भावार्थ:----गेहूं आदिकी पिट्ठीसे, शरीरको घर्षण करने व औषधोंके चूर्ण को शरीर पर डालनेसे, शरीरमें स्थिरता आजाती है, चर्ममें कांति आजाती है, मेदविकार, श्लेष्मविकार ग्रंथिरोग [संधिरोग ] खुजली और वातरोग, एवं रक्तोत्पन्न रोग भी इससे नष्ट होते है ॥११॥ पवित्र स्नान गुण तुष्टिं पुष्टिं कांतिमारोग्यमायु-। स्सौम्य दोषाणां साम्यमग्नेश्च दीप्तिम् । तंद्रानिद्रापापशांतिं पवित्रम् स्नानं कुर्यादन्नकांक्षामतीव ॥ १२ ॥ भावार्थ:--- स्नान करनेसे मनमें संतोष उत्पन्न होता है। तेज बढता है । आरोग्य रहता है । दीर्घायु होता है । शुचिता प्राप्त होती है । दोषोंका साम्य होता है। अग्नि तेज हो जाती है, आलस्य निद्रा दूर होजाती है । पापको उपशमन कर शरीरको पवित्र करता है भोजनमें इच्छा उत्पन्न करता है । इसलिये पवित्र स्नान अवश्य करना चाहिये ॥१२॥ स्नान के लिये अयोग्य व्याक्त ! स्नानं वयं छर्दिते कर्णशूले-। चाध्मानाजीर्णाक्षिरोगेषु सम्यक् ॥ सद्योजाते पीनसे चातिसारे। भुक्ते साक्षात्सज्वरे वा मनुष्ये ॥ १३ ॥ भावार्थ:--जिसको उल्टी होरह हो, कर्णशूल [ दर्द | होगया हो जिसकी पेट फूलगयी हो अर्जीर्ण होगया हो आंखोंका रोग होगया हो, पीनस रोग होकर अल्प समय होगया हो, अतिसार होगया हो, जिसने भोजन किया हो, साक्षात्ज्वर सहित हो, ऐसे मनुष्य ऐसी अवस्थावोमें स्नान नहीं करें ॥ १३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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