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बालग्रहभूततंत्राधिकारः।
(१७८)
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ग्रहामयन्न घृत, स्नान धूप, लेप.
अभ्यंजनस्यनयनांजनपानकेषु । सर्पिः पुराणमपि तत्पारिपकमाहुः ।। स्नानं च तत्कथितभेषजसिद्धतोयैः । धूपं विलेपनमथ कृतचूर्णकल्कैः ॥ १३५ ॥
भावार्थ:-इस ग्रहामय में उन्ही औषधियोंसे पक्क पुराने घृत को अभ्यंग ( मालिश ) नस्य, नेत्रांजन, पानक आदि में उपयोग करना हितकर है । एवं उन ही
औषधियोंसे सिद्ध पानसे रोगीको स्नान करावें । उन्हीं औषधियों के चूर्णसे धूपन . प्रयोग करना हितकर है ॥ १३५॥
उपसंहार
इति कथितविशेषाशेषसद्भेषजैस्तत् । सदृशविरसबीभत्सातिदुर्गधजातैः ॥ विरचितबहुयोगैः धूपनस्यांजनाथै-। भिषगखिलविकारान्मानसानाशु जेयात् ॥१३६॥
भावार्थ:-समस्त प्रकार के मानसिक ( ग्रहगृहात ) विकारोंको आयुर्वेद शास्त्र में कुशल वैद्य उपर्युक्त प्रकार के विशिष्ट समस्त औषधियों के प्रयोग एवं तत्सदृश गुण रखनेवाले रसरीहत, देखनेमें घृणा उत्पन्न करनेवाले, अत्यंत दुर्गंधयुक्त औषधियों से तैयार किये हुए धूप, नस्य व अंजनादि अनेक प्रकार के योगों के प्रयोग से चिकित्सा कर जीतें ॥ १३६ ॥
अंत मंगल.
इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः। सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो। निस्तमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ॥ १३७ ॥
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