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________________ (१७७) कल्याणकारके भावार्थ:- अनेक प्रकार के यमव्रत, नियमव्रत, सत्य, शौच आदि गुणोंसे युक्त वैद्य स्वयं अनेक मंत्रोंसे मंत्रित होकर, उन ग्रहाके योग्य मंत्रोंसे एवं अनेक प्रकार के आभूषण, रत्न, अनुलेपन, पुष्पमाला, पवित्रा नैवेद्य धूप आदिसे उन ग्रहोंको जीतें ॥१३१॥ ग्रहामयन्न घृततैल. लशुनतगरहिंगूयाजलोर्मीसगोलोप्यमृतकटुकतुंबीविनिवेंद्रपुष्पी । त्रिकटुकपटुयुक्ताशेषगंधैलकाक्षी [?] । सितगिरिवरकर्णीभूतकेश्यर्कमलैः ॥ १३२ ॥ तालीतमालदलसालपलाशपारी । भद्रेदीमधुकसारकरंजयुग्मैः ।। गंधाश्मतालकशिलासितसर्षपाथै । व्यायर्कसिंहवृकशल्यबिडालविभिः ।। १३३ ॥ पश्वश्वसोष्ट्रखरकुक्कुररोमचर्म-। दंयाविषाणशकृतां समभागयुक्तः ॥ अष्टप्रकारवरमूत्रसुपिष्टकल्कैः काथैर्विपकघृततैलमिह प्रयोज्यम् ॥ १३४ ॥ भावार्थ:-लहसन, तगर, हींग, वच, समुद्रफेन, सफेद दूव [ श्वेतदूर्वा ] गिलोय कडवी तुंबी ( कडवी लौकी) बिंबफल, नीम, कलिहारी, सोंठ, मिरच, पीपल, सेंधानमक, समस्त गंधद्रव्य, इलायची,श्वेतकिणिही वृक्ष, भूत केशतृण, अकौवा के जड, तालीस पा लमालपत्रा,साल,पलाश,धूपसरल, इंगुली, मुलैठी,छोटी करंज, बडी करंज, गंधक, हरताल, मैनशिल, सफेद सरसों, कटेली, अकौवा, लाल सैंजन [रक्तशीग्रु] राल, मैनफल वृक्ष, बिल्ली का मल, गाय, घोडा, ऊंठ, गधा, कुत्ता इनके रोम, चर्म,दांत, सींग व मल इन सब को समभाग लेकर आठ प्रकार के (गाय बकरा भेड भैंस घोडा गधा ऊंट हाथी इनके) मूत्र में अच्छी तरह पीसकर कल्क तैयार करे और उपरोक्त औषधियों के क्वाथ भी बनालेवें । इन कल्कक्काथ से सिद्ध घृत तैल को इस गृहामथ में पान अभ्यंजन नस्यादि कार्यों में उपयोग करना चाहिये ॥ १३२ ॥ १३३ ॥ १३४ ॥ १ वृष इति पाठांतर. २ गोऽजाविमहिषाश्वानां खरोष्ट्रकरिणां तथा । मूत्राष्टकमिति ख्यातं सर्वशास्त्रेषु संमतम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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