________________
हिताहिताध्यायः।
( ७३५ )
रित्राणामतिस्निग्वस्थूलशरीराणि दृश्यते । तथा चैतेप्यत्यंतबलवंतो पुत्रचंतश्च । तथा कचित् पिशिताशिनोप्यतिकृशाः क्लीवाः दुर्बलाग्नयो व्याधिग्रस्तांगाः क्षीणाः क्षयिणश्च निष्पुत्राश्चोपलक्ष्यते, इत्यनैकांतिकमेतत् । तथा चान्ये तिर्यग्जातयोप्यरण्यचरा मधुमद्यमांस विरहिताहारा यूथपतयो गजगवयमहिषवृषभपृषतमेपहरिणरुरुचमरवराहादयः स्थलजलकुलगिरितरुवनचरास्तृणगुल्मलतांधिपाहारिणः स्थिरोपचितशरीरबलविलासीर्यविक्रमवृष्पयुष्यपत्वसंपन्ना वहुपुत्रकलत्रसंपूर्णा बहुव्यवायिनस्सततकामिनश्चोपलश्यते ।। तथा कचित्केवलमतिपिशिताशिनसिंहव्यावतरक्षुद्विपिमार्जारभृतयो ह्यवृष्या निप्पुत्रास्संवत्सरकामिनश्चेत्येवं निमिनाप्युक्तम् ।
मांसादः श्वापदःसर्वे वत्सरांतरकामिनः ।
अवृष्यास्ततएव स्थुरभक्ष्यपिशिताशिनः ॥ इति मांसभक्षिणां मृगादीनामपि वृष्यहानिः संजाता ॥
म
नहीं। कारण कि मांस को भक्षण नहीं करनेवाले ऋपिजन व अन्य चारित्रशील पुरुष विशेषों के स्निग्ध व स्थूल शरीर देखे जाते हैं । साथ ही ये अत्यंत बलशाली व पुत्रवान् देखे जाते हैं। विपरीत में कई मांस भक्षक भी अत्यंत कृश, नपुंसक, दुर्बल जठराग्नत्र ले, रोगग्रस्त शरीरवाले, क्षीण शरीरवाले, क्षयपीडित व संतानरहित भी देखे जाते हैं । अतः यह अनैकांतिकदोष से दूषित है। इसी प्रकार अन्य तिथंच प्राणी जंगल में रहनेवाले, मधु, मद्य, मांसादिक आहारों को ग्रहण नहीं करनेवाले गज, गवय, बैल, चित्तीदार हिरन, वकरा, हिरन, रुरु [ मृगविशेष ] चमरमृग, एवं वराहादि, स्थलचर, जलचर; कुलगिरिचर, तरुचर व वनचर प्राणी तृण गुल्म लता व वृक्षों के पत्ते वगैरह को खानेवाले स्थिर व मजबूत शरीर को धारण करते हुए बलकार्य पुष्टि आदि से युक्त, बहुपुत्र व कलत्र से युक्त अत्यधिक कामी व मैथुन सेवन करनेवाले देखे जाते हैं । विपरीत में कोई अत्यधिक केवल मांस खानेवाले सिंह, व्याघ्र, तरक्षु [कांटे से युक्त शरीरबाले प्राणिविशेष द्विपि, मार्जार आदि धातुरहित, संतानरहित होकर वर्ष में एकाध दफे मैथुन सेवन करनेव ले होते हैं । इस प्रकार निमिने भी कहा है।
अभक्ष्य मां को भक्षण करनेवाले सर्व जंगली प्राणी एक वर्ष में एक दफे मैथुन सेवन करनेवाले होते हैं । क्यों कि उन के शरीर में धातु पुष्ट नहीं रहता है । इस प्रकार मांसभक्षी मृगादिकों के शरीर में वृष्यत्व [पुष्टि ] नहीं रहता है यह सिद्ध हुआ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org