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________________ क्षुद्ररोगाधिकारः (४०९) . अर्थ सप्तदशः परिच्छेदः। सवन . मंगलाचरण व प्रतिज्ञा. जिनपतिं प्रणिपत्य जगत्रय-। प्रभुगणार्चितपादसरोरुहम् ॥ हृदयकोष्ठसमस्तशरीरजा- । मयचिकित्सितपत्र निरूप्यते ॥१॥ अर्थ:- जिन के चरणकमल को तीन लोकके इंद्र आकर पूजते हैं ऐसे श्री जिननाय को नमस्कार कर हृदय, कोष्ठ व समस्त शरीर में उत्पन्न होनेवाले रोग व उनकी चिकित्सा अब कही जाती है ॥ १॥ सर्वरोगों की त्रिदोषों से उत्पत्ति. निखिलदोषकृतामयलक्षण- । प्रतिविधानविशेषविचारणं ॥ क्रमयुतागमतत्वविदां पुनः । पुनरिह प्रसभं किमु वर्ण्यते ॥२॥ अर्थः--सर्व प्रकार के रोग वात पित्त कफ के विकार से हुआ करते हैं, कुशल वैद्य उन दोषों के क्रमको जानकर उनकी चिकित्सा करें। दोषों के सूक्ष्मतत्व को जानने वाले विद्वान् वैद्यों को इन बातों को बार २ कहने की जरूरत नहीं है ॥२॥ त्रिदोषोत्पन्न पृथक् २ विकार. प्रवरवातकृतातिरुजा भवे- । दतिविदाहतषाद्यपि पित्तजम् । उरुघनस्थिरकण्डुरता कफो- । द्भवगुणा इति तान् सततं वदेत् ॥३॥ भावार्यः----वातविकार से शरीर में अत्यधिक पीडा होती है । पित्तविकार से दाह तृषा आदि होती है । कफके विकारमे स्थूल, घन, स्थिर व खुजली होती है। ऐसा हमेशा जानना चाहिए ॥ ३ ॥ . रोगपरीक्षाका सूत्र. अकथिता अपि दोषविशेषजा । न हि भवंति विना निजकारणैः । अखिलरोगगणानवबुध्य तान् । प्रतिविधाय भिषक् समुपाचरेत् ।। ४ ॥ भावार्थ:-दोषावशेषों [ वात पित्त, कफों ] के बिना रोगों की उत्पत्ति होती ही नहीं, इसलिये उन दोष रोगों के नाम, लक्षण, आदि विस्तार के साथ, वर्णन नहीं करने पर भी समस्त रोगों को, दोषों के लक्षणों से ( वातज है या पित्तज ? इत्यादि ) निश्चय कर उनके योग्य, चिकित्सा भिषक् करें ॥ ४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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