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महामयाधिकारः।
(२२३)
साभपातोदर चिकित्सा। यथोक्तदृषीविष महोदरं । त्रिदोषभैषज्यविशेषमार्गतः॥ उपाचरेदाशुकरंजलांगली- । शिरीषककरनुलेपयेदहिः ॥१५२ ॥
भावार्थ:--- यदि दूप्योदर ( सन्निपातोदर ) होजाय तो त्रिदोषके उपशामक औषधियोंसे शीघ्र उपचार करना चाहिए। एवं करंज, कालेझारी, सिरसके कल्कसे बाहर लेपन करना चाहिए ॥ १५२ ।।
____ निदिग्धिकादि घृत। निदिग्धिका निंबकरंजपाटली । पलाशनीली कुटजांघिपांबुभिः ॥ विडंगपाठास्नुहिदुग्धमिश्रितैः । पचेद्धृतं तच्च पिवंद्विषोदरी ॥१५३॥
भावार्थः-कटेली, नीम, करंज, पाडल, पलाश, नील, कुटज, इन वृक्षोंके कषाय व वायविडंग, पाढा, थोहर के दूध, इनके कल्क से पकाये हुए घृत उस विषोदरीको पिलाना चाहिये ॥ १५३ ॥
एरण्डतेल प्रयोग। ससैंधवं नागरचूर्णमिश्रितं । विचित्रवीजोद्भवतैलमेव वा ॥ लिहेत्समस्तोदरनाशहेतुकं । सुखोष्णगोक्षीरतनुं पिवेदपि ॥ १५४ ॥
भावार्थ:---एरण्ड बीजले उत्पन्न तेल अर्थात एरण्ड तेलमें सेंधानमक सोंठके चूर्णको मिलाकर चाटने को देना चाहिये एवं मदोष्ण गायका दूध पिलाना चाहिये जिससे समस्त उदर रोग नाश होते हैं ॥ १५५ ॥
उदर नाशक योग । तथैव दुग्धाकजातिस द्रवै- । विपक्षमाशु क्षायन्छतांशकैः ।। तथा मरुंग्या स्वरसेन साधितं । पुनर्नवस्यापि रसैमहोदरम् ॥ १५५ ॥
भावार्थ:-इसी प्रकार दूध अदरख ब . जाईके रससे सौ वार पकाये गये तथा फालेसेंजनके रससे या पुनर्नवाके रससे सिद्ध एरण्ड तैलके सेवनसे महोदर रोग माश होता है ॥ १५६ ॥
अन्याज्य योग। मुवर्चिका हिंगुथुत सनागरं । सुखोष्णदुग्धं शमयेन्महोदरं ॥ गुडं द्वितीयं सततं निषेवितं । हरीतकीनामयुतं प्रयत्नतः ॥ १५६ ॥
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