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________________ (1980) कल्याणकारके इत्यनेकप्रकारैरशास्त्रांतरेषु मधुमद्यमांसनिषेवणं निरंतरमुक्तं कथमिदानीं प्रच्छादयितुं शक्यते ? तथा चैवमेके भाषते - तरुगुल्मलतादीनां कंदमूलफलपत्र पुष्पाद्यैौषधान्यपि जीवशरीरत्वान्मांसान्येव भवतीति । एवं चेत् साधुभिरुक्त: - मांसं जीवशरीरं जीवशरीरं भवेन्न वा मांसम् । यद्वनिंबो वृक्षो वृक्षस्तु भवेन्न वा निंबः ॥ इति व्याप्यव्यापकस्वभावत्वाद्वस्तुनः व्यापकस्य यत्र भाव व्याप्यस्य तत्रैव भाव इति व्याप्तिः । ततो व्याप्तत्वात् मांसं मांसमेत्र तथात्मवीर्यादयोपीव शिशप्रा वृक्ष एव स्यात् वृक्षो निंबायो यथा । इत्येतस्माद्धेतोः मांसं जीवशरीरं जीवशरीरं च मांसं न स्यादित्यादि शुद्धाशुद्धयोग्यायोग्यभोग्याभोग्यभक्ष्याभक्ष्यपेयापेयगम्यागम्यादयो लोकव्यापाराः सिद्धा भवतीत्युक्तम् । चाहिये | इत्यादि प्रकार से मांस भक्षण का पोषण किया गया है । १. इस प्रकार अनेकविध शास्त्रांत रोमें मधु, मद्य व मांससदृश निंद्य पदार्थों के सेवन का समर्थन किया गया है, अब उसे किस प्रकार आच्छादन कर सकते हैं । अब कोई यहां पर ऐसी शंका करते हैं कि वृक्ष, गुल्म, लता, कंदमूल, फल, पत्र आदि औषध भी जीवशरीर होने से मांस ही हैं । फिर उन का भक्षण क्यों किया जाता है ? इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि : मांस तो जीवशरीर ही है। परंतु जीवशरीर सबके सब मांस ही होना चाहिये ऐसा कोई नियम नहीं है | वह मांस हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है । जिस प्रकार निंब तो वृक्ष है, परंतु वृक्ष सभी निंब हों ऐसा हो नहीं सकता । इसी प्रकार मांस जीवशरीर होनेपर भी जीवशरीर मांस ही होना चाहिये, ऐसा नियम नहीं हो सकता है । इस प्रकार पदार्थों का धर्म व्याप्य व्यापक रूपसे मौजूद है । व्याप्य की सत्ता जहाँपर रहेगी वहां व्यापक की सत्ता अवश्य होगा । परंतु व्यापक के सद्भाव में व्याप्य होना ही चाहिये ऐसा कोई नियम नहीं है । जैसे शिंशपा व वृक्ष का संबंध है । जहां जहां शिंशपात्व है वहां वहांपर वृक्षत्व है। परंतु जहां जहां वृक्षत्व है वहां वहांवर शिशपात्व होना चाहिये ऐसा कोई नियम नहीं है । इस कारणसे मांस जीवशरीर होनेपर भी जीवशरीर मांस नहीं हो सकेगा, इत्यादि प्रकार से लोक में शुद्धाशुद्ध, योग्यायोग्य, भोग्याभोग्य, भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय, गम्यागम्य, आदि लोकव्यवहार होते हैं । Jain Education International १ इस के आगे मांसका पोषण करते हुए मद्य पीने का भी समर्थन चरक में किया गया है। जो धर्म व नीति से बाह्य है । सं० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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