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कल्याणकारके
भावार्थ:-नीम का पत्ता, सांप की कांचली, राल, उल्लू व खरगोश के वीट अजगंधा, [ अजवायन ] इन औषधियों से धूप देना चाहिये । बिंबलता, धुंघची, काकादनी [ काकतिंदुकी ] इनको धारण कराना चाहिये ॥ १०३ ॥
शीतपूतनाप्न बलि स्नानका स्थान. मुद्गयूषयुतभोजनादिकैः अर्चयेदपि शिशु जलाश्रये । स्नापयेदधिकमंत्रमंत्रितै मंत्रविद्विधिविपक्ववारिभिः॥ १०४ ॥
भावार्थ:-मुद्गयूष ( मूंग की दाल ) से युक्त भोजन भक्ष्य आदि से जलाशय के [ तालाव नदी आदि ] समीप, शीतपूतना का अर्चन करना चाहिये । एवं जलाशय के समीप ही उस बालक को मंत्रों से मंत्रित, विधि प्रकार [ पूर्वोक्त औषधियों से ] पकाये गये जल से मंत्रज्ञ वैद्य रनान करावे ॥ १०४ ॥
पिशाचग्रहगृहीत लक्षण. शोषवत्सुरुचिराननः शिशुः क्षीयतेऽतिबहुभुक्सिराततः । कोमलांघ्रितलपाणिपल्लवो मूत्रगंध्यपि पिशाचपीडितः ॥ १०५ ॥
भावार्थ:-जो बालक सूखता हो, जिसका मुख सुंदर दिखता हो, रोज क्षीण होता जाता हो, अधिक भोजन [ या रतन पान ] करता हो, पेट नसों से व्याप्त हो [ नसें पेट पर अच्छीतरह से चमकते हो ] पादतल व हाथ कोमल हो, शरीर में गोमूत्र का गंध आता हो तो समझना चाहिये वह पिशाच ग्रह से पीडित है ॥ १०५॥
पिशाचग्रहघ्न स्नानौषधि व तेल. तं कुबेरनयनार्कवंशगंधर्वहस्तनृपबिल्ववारिभिः । सनिषिच्य पवनघ्नभेषजैः पक्वतैलमनुलेपच्छिशम् ।। १०६ ॥
भावार्थ:- उसे कुबेराक्षि ( पाटल ] अकौवा, वंशलोचन, अमलतास, बेल, इनके द्वारा पकाये हुए पानी से अच्छीतरह स्नान कराकर वातहर औषधियों के द्वारा पकाये हुए तेलको उस पिशाच पीडित बालक के शरीर पर लगाना चाहिये ॥ १०६ ॥
पिशाच ग्रहत्न धूप व घृत. अष्टमृष्टगणयष्टिकातुगाक्षीरदुग्धपरिपक्वसद्धृतम् । पाययदपि वचस्सकुष्टस ः शिशुं सततमेव धूपयेत् ॥ १०७ ।।
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