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( २८ )
कल्याणकारके
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गर्भस्थ बालककी पोषणविधि । निजरुचितामपक्क समलाशयमध्यमगर्भसंस्थितः । सरसजरायुणा परिवृतो बहुलोग्रतमेन कुंठितः । प्रतिदिनमंबिकादशन चर्वितभक्ष्यभोज्यपानकान्युपरि निरंतरं निपतितान्यतिपित्तकफाधिकान्यलम् ।। ५५ ।। विरसपुरीषगंधपरिवासितवांतरसान्समंततः । पिबति विभिन्नपार्श्वघटवत्कुणपोंऽबुयुतो घटस्थितः । अभिहित सप्तमासतस्तदनंतरमुत्पलनालसनिभं ।
भवति हि नाभिसूत्रममुना तत उत्तरमश्नुते रसान् ॥ ५६ ॥ इति कथितक्रमादधिनीतवृद्धिमनेकविघ्नतः ।
समुदितमातुरंगपरिपीडन मुग्रमुदीरयन्पुनः ।
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प्रभवति वा कथंचिदथवा म्रियते स्वयमंबिकापि वामनुजभवे तु जन्मसदृशं न च दुःखमतोऽस्ति निश्चितम् ॥ ५७ ॥ भावार्थ: - - वह गर्भगत बालक स्वभाव से आमाशय पक्काशय व मलाशय के में स्थित गर्भाशय में रसयुक्त जरायुके द्वारा ढका हुआ होकर अत्यंत अंधकार से कुंठित रहता है । प्रतिनित्य माता जो कुछ भी भक्ष्य, भोजन व पान द्रव्य आदियों को दांतों से चाकर खाती है, उससे बना हुआ पित्त व कफाधिक रस एवं नीरस, मलके दुर्गंध से परिवासित, अंतस्थित रसों को, चारों तरफसे पीता है, जैसे पानीके घडे में रखा हुआ मुर्दा चारों तरफ से पानीको ग्रहण करता हो । ( इस आहारसे गर्भगत बालक सात महीने तक वृद्धि को प्राप्त होता हैं ) । सात महीने होनेके बाद उस बालककी नाभि स्थानसे कमल नालके समान एक नाल बनता है वह माता के हृदयसे सम्बंधित होता है। तदनंतर वह उसी नालसे रस आदिका ग्रहण करता है । इस उपर्युक्त क्रमसे अनेक विघ्न व कष्टों के साथ गर्भगत बालक वृद्धिको प्राप्त होता है । जिस बीचमें माताको उम्र अंगपीडा आदि उत्पन्न करता है । ऐसा होकर भी कभी वह सुखसे उत्पन्न हो जाता है, कभी २ मरजाता है, इतना ही नही, कभी २ माताका भी प्राण लेकर चला जाता है । इस लिये मनुष्य भवमें आकर जन्म लेनेके समान दुःख लोक में कोई दूसरा नहीं, यह निश्चित है । ५५ ॥ ५६ ॥ ५७ ॥
कर्मकी महिमा । अशुचिपुरीषमूत्ररुधिरस्रावगुह्यमलप्रदिग्धता । निष्ठुरतरवित्र प्रतियहुमिश्रितरोमचयातिदुर्गमम् । सुषिरमधोमुखं गुदसमीपविवर्ति निरीक्षणासह कथयितुमप्ययोग्यमधिगच्छति कर्मवशात्सगर्भजः ॥ ५८ ॥
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