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गर्भो पत्तिलक्षणम्
(२७)
भावार्थ:-तदनंतर उन यथासंभव प्राणोंको प्रात जीवको आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छ्वास मन व बचन इस प्रकारकी छह पाप्ति कही गई हैं जो क्रमसे जीवके लिए शरीर वृद्धिके कारण हैं ।। ५१ ॥
__ शरीरोपत्ति में पर्याक्तिकी आवश्यकता । सशुक्ररक्तं खलु जीवसंयुतम् क्रमाच्च पर्यातिविशेषसद्गुणान् । मुहूर्तकालादधिगम्य पडिधानुपति पश्चादिह देहभावताम् ॥ ५२ ॥
भावार्थ:-जीवयुक्त रजोवीर्य का वह पिण्ड क्रम से छह पर्याप्तियोंको अंतर्मुहूर्तसे प्राप्तकर तदनंतर वहीं शरीरके रूप को धारण करलेता है ॥ ५२ ॥
गर्भ में शरीराविर्भावक्रस
( चंपक मालिका) अथ दशरात्रतः कललतामुपयाति निजस्वभावतो। दशदशभिर्दिनैः कलुपतां स्थिरतां व्रजतीह कर्मणा। पुनरपि बुद्धदत्वघनता भवति प्रतिमासमासतः ।। पिशितविशालता च बहिकृत स हि पंचमांसतः॥ ५३ ॥ अवयवसंविभागमधिगच्छति गभेगती हि मासतः । पुनरपिचर्मणा नखांगरुहोद्गम एव मासतः। सशुषिरमुत्तमांगमुपलभ्य मुहुः स्फुरणं च मासतो।
नवदशमासतो निजनिजविनिर्गमनं विकृतीस्ततोऽन्यथा ॥५४॥ भावार्थ:-गर्भ ठहरने के बाद दश दिनमें वह कलल के रूपमें बनजाता है । फिर दस दिनमें वह गंदले रूपमें बनजाता है, फिर दस दिनमें वह स्थिर हो जाता है। पुनः एक महीनेमें बुदबुदेके समान और एक महीने में कुछ कठोर बनजाता है । इस प्रकार अपने कर्मके अनुसार उसमें क्रमसे वृद्धि होकर पांचवा महीने में बाहर की
ओरसे मांसपेशियां विशाल होने लगती हैं । तदनंतर एक ( छठवा ) महीनेमें उस बालकका अवयव विभाग की रचना होती है एवं फिर एक ( सात्वां) मासमें चमडा, नख व रोमोंकी उत्पत्ति होती है । तदनंतर एक [ आठवां ] महीनेमें मस्तकका रंध्र ठीक २ व्यक्त होकर स्फुरण होने लगता है। नौ या दसवें महीने में वह बालक या बालकीरूप संतान बाहर निकलती है । दस महीनेके अंदर वह गर्भ बाहर न आवे तो उस का विकार समझना चाहिये ॥५३॥५४॥
१-विशित विशालताच बलिकृतकाश्च हि पंचमासतः इति पाटातरं ।
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