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( ३९० )
कल्याणकारके
तृष्णा को पैत्तिक तृष्णा में कही गई सम्पूर्ण चिकित्साक्रमके अनुसार साधन करें । क्यों कि पित्तदोष को छोडकर तृष्णा उत्पन्न हो ही नहीं सकती है ॥ ३४॥
तृष्णानाशकपान,
त्वक्कषायमथ शर्करया तं । क्षीरवृक्षकृतजातिरसं वा । सद्रसं बृहदुदुवरजातम् । पाययेदिह तृषापरितप्तम् ||३५||
भावार्थ:-- दालचीनी के कृपाय में शक्कर मिलाकर, क्षीरवृक्ष या जाई के रस अथवा बडे उदुंबर के रस को तृपासे परिपीडित रोगीको पिलाना चाहिए ॥ ३५॥
उत्पलादि कपाय.
उत्पलांबुज कशमकश्रृंगा - । टांघ्रिभिः कथितगलिततोयम् ॥ चंदनबुधनवालक मिश्रं । स्थापयन्निशि नभस्थलदेशे ॥ ३६ ॥ गंधतोयमतिशीतलमेव । द्राक्षया सह सितासहितं तत् ॥ पाययेदधिकदाहतृषार्ते | मर्त्यमाशु सुखिनं विदधाति ॥ ३७ ॥
भावार्थ:--- नीलकमल, कमल, कसेरु, सिंघाडे, इनके जडसे सिद्ध किये हुए काथ (कोढा ) में चंदन, खस, कपूर, नेत्रवालाको मिलाकर रात्री में चांदनी में रखें। इस सुगंधित च शतिलजलको द्राक्षा व शक्कर के साथ अत्यधिक दाह व तृषा सहित रोगीको पिलायें । यह उसे सुखी बनायगा ॥ ३६ ॥ ३७ ॥
सारिबादि क्वाथ.
शारिवाकुशकशेरुक काशी। शीरवारिदमधूक सपिष्टैः ॥
पक्कतोयमतिशीतसिताढ्यम् । पीतमेतदपहंत्यतितृष्णाम् ॥ ३८ ॥
भावार्थ :-- सारिवा, कुश, कसेरु, कासतृण, रूस, नागरमोथा, महुआ इनको पीसकर काढा करें। जब वह ठण्डा होवें तब उसमें शक्कर मिलाकर पीये तो यह भयंकर तृष्णाको दूर करता है ॥ ३८ ॥
अथ छर्दिरोगाधिकारः ।
छर्दि ( मन ) निदान व चिकित्सा.
छर्दिमप्यनिलपित्तकफोत्थं साधयेदधिकृतौषधभेदैः ॥ सर्वदोषजनितामपि सर्वे- । भेषजैभिषगशेषविधिज्ञः ॥ ३९ ॥
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