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क्षुद्ररोगाधिकारः।
( ३९१)
भावार्थः-दोषोंके कुपित होने व अन्य कारणविशेषोंसे खाया हुआ जो कुछ भी पदार्थ मुखमार्गसे बाहर निकल आता है इसे छर्दि, वमन व उलटी कहते हैं । वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज, आगंतुज, इस प्रकार छर्दिका भेद पांच है। इन वात आदिसे उत्पन्न छर्दि रोगोमें तत्तदोषांके लक्षण पाये जाते हैं। सन्निपातजमें तीनों दोषोंके लक्षण प्रकट होते हैं । जो मल, रक्त मांस आदि भाभास पदार्थोंको देखने आदिसे, गर्भोत्पत्तिके कारणसे, अजीर्ण व असात्म्य अन्नोंके सेवनसे और क्रिमिरोगसे जो छदि विकार (वमन) होता है, इसे आगंतुज छर्दि कहते है । उपरोक्त वातादिदोषजनित छर्दियोंको तत्तदोषनाशक औषधियों के प्रयोगसे साध्य करना चाहिये । तीनों दोषोंसे उत्पन्न ( सान्निपातन ) छर्दिको तीनों दोषोंको नाश करनेवाली औषधियोंसे सम्पूर्ण चिकित्साविधिको जाननेवाला वैद्य, साधन ( ठीक ) करें ॥ ३९ ॥
आगतुंजीचिकित्सा. दोहदोत्कटमलक्रिमिभभि- । भत्साद्यपथ्यतरभोजनजाताम् ॥ छर्दिमुद्धतनिनाखिलदोष । प्रक्रमैरुपचरेदुपगम्य ॥ ४० ।।
भावार्थ:-गर्भिणी स्त्रियों की, मलकी उत्कटता, क्रिमिरोग भीभत्सपदार्थों को देखना, अपथ्य भोजन आदि से उत्पन्न आगंतुज छर्दि में, जिन २ दोषों के उद्रेक हो उन को जानकर तत्तद्दोषनाशक चिकित्सा विधि से, उपचार करें ॥ ४० ॥
छर्दिका असाध्यलक्षण. सास्रपूयकफमिश्रितरूपो- । पद्रवाधिकनिरंतरसक्ताम् ।। वर्जयेदिह भिषग्विदितार्थः । छर्दिमर्दिततनं बहुमूर्छा ॥ ४१ ॥
भावार्थ:-छर्दिसे पीडित रोगी, रक्त, प्य व कफसे मिश्रित वमन करता हो, अत्यधिक उपद्रवों से हमेशा युक्त रहता हो, वार २ मूर्छित होता हो तो ऐसे रोगी को अभिज्ञ वैद्य, असाध्य समझकर छोड देवें ॥ ४१ ॥
छर्दिमें ऊर्ध्वाधःशोधन. छर्दिषु प्रबलदोषयुतासु । छर्दनं हितमधःपरिशुद्धिम् ॥ प्रोक्तदोषविहितोषधयुक्तम् । योजयेज्जिनमतक्रमवेदी ॥ ४२ ॥
भावार्थ:-यदि छर्दि अत्यंत प्रबल दोषोंसे युक्त हो तो उस में पूर्वोक्त, तत्तदोषनाशक औषधियों से, वमन व विरेचन जिनमतके आयुर्वेदशास्त्र की चिकित्साक्रम को जाननेवाला वैद्य करावें ॥ ४२ ॥
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