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________________ (६१४) कल्याणकारके को भेदन करता है । ऐसा होनेपर शीघ्र ही तपाकर( स्वेदन कर ) निरूह [ आस्थापन ] बस्ति और अनुवामन बस्तिका प्रयोग क्रमश: करें ॥ ९१ ॥ ____ अवसन्नध्यापञ्चिकित्सा. इहावसाने त्वधिकं ह्यधोमुखं । पतद्रवं चाशु दहत्यथाशयम् । पयः पयोवृक्षकषायष्टिकै-निरूहयेदप्यनुवासयेद्धृतम् ।। ९२ ।। भावार्थःनेत्र प्रयोग करते समय नांचे की ओर झुक जावे तो द्रवपदार्थ अधिक अधोमुख ( नीचे ओर झुककर ) होकर गिरते हुए शीघ्र ही आशय को जलाता है। ऐसा होनेपर, दूध, दूधिया वृक्षों के काढा व मुलैठी से आस्थापन बस्ति देवें और घी से अनुवासन बस्ति भी देवे ॥ ९२ ॥ नेत्रदोषजव्यापत्ति व उसकी चिकित्सा. तथैव तिर्यप्रणिधानदोषतो । द्रवं न गच्छेदृजुसंप्रयोजयेत् ॥ अतीव च स्थूलमिहातिकर्कशं । रुजाकर स्यादभिघातकृत्ततः ॥ ९३॥ सुभिन्न नेत्रेऽप्यनुसंन्त्रकर्णिके । द्रवं स्रवेत्तच्च विवर्जयद्भिषक् ।। प्रवेशनाद्यत्पतिदीर्घिका सती । गुदे क्षते सावयतीह शोणितम् ॥ ९४ ॥ अतिप्रवृत्तेऽसृजि शोणिताधिका-1 प्रवृत्तिनिर्वृत्तिविधिविधीयते ॥ सुसूक्ष्मदुश्चिद्रयुतेन पीडितं । द्रवं न गच्छेदपि तद्विवर्जयेत् ॥ ९५ ॥ भावार्थ:---इसी प्रकार पिचकारी को तिरछा प्रयोग करने के दोपसे द्रव अंदर नहीं जाता है। उस अवस्थामें उसे सीधाकर प्रयोग करना चाहिये। यदि नेत्रा (पिचकारी) बहुत मोटा हो, कर्कश [ खरदरा } । [ और टेढा हो ] तो उस के प्रयोग से गुदा में चोट लगकर जखम व पीडा होती है। पिचकारी फटी हुई हो जिस की कर्णिका पास में हो [और नली बहुत पतली हो तो पिचकारी में रहनेवाला द्रव अंदर प्रवेश न कर के बाहर वापिस आ जाता है। इसलिये ऐसी पिचकारीयों को बस्तिकर्म में वैद्य छोड देवें । जिस पिचकारी में कर्णिका बहुत दूर हो, उम के प्रवेश कराने पर वह दूर तक जाकर गुदा ( मर्म ) में जखम कर के रक्त का स्राव करती है। इसप्रकार रक्त की अति प्रवृत्ति होनेपर, रक्त की अतिप्रवृत्ति में उस को रोकने के लिये जो चिकित्सा बतलायी गई उससे उपचार करना चाहिये । अत्यंत सूक्ष्म ( बारीक ) छिद्र (सुराक) अथवा खराब छिद्र से संयुक्त पिचकारी अंदर प्रवेश कराने पर उस के द्रव बराबर अंदर नहीं जाता है। इसलिये ऐसी पिचकारी को भी छोड दे ॥९३॥९४॥९५|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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