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________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (२९३). भावार्थ:-विशेष रूपसे जो शोफ कडा रहता है उसे आमशोफ कहते हैं। जो ज्वर, अधिक ताप ( जलन ) उष्णता आदियों से पीडित होता है उसे विदग्ध कहते हैं। ( जिस वक्त वह पक रहा हो, आम व पक्क के बीचमें होनेवाली, यह अवस्था है) जिल में पूर्वोक्त घर, पीडा आदि भयंकर दुःख नाश होगये हों, शोथ भी विवर्ण [ पहले का रंग बदल गया हो ] होगया हो, उसे विपक्क कहते हैं। अर्थात् वह अच्छी तरह पका हुआ समझन! चाहिये । इस पके हुए को तीवण शस्त्र के प्रयोगसे मुद्धि करना ( पूय आदि निकालना ) चाहिये ॥ २९ ॥ अष्टविध शस्त्रकर्म व यंत्रनिर्देश बहुविधमथशल्यं छेदनं भेदनं वा । प्यसकृदिह नियोज्यं लेखनं वेधनं स्यात् ॥ अविदितशरशल्याधेषणं तस्य साक्षात् ।। हरणमिह पुनर्विलावणं सीवनं च ॥ ३० ॥ सकलतनभृतां कर्मेव कर्माष्टभेदं ।। तचितवरशस्त्रैः तद्विधेयं विधिज्ञैः ॥ विदितसकलशल्यान्यैवमुद्धर्तुमत्रा- । प्यविहतमुरुयंत्रं फंकवक्त्रं यथार्थम् ॥ ३१ ॥ भावार्थ:- शरीर में नानाप्रकारके शल्य हो जाते हैं। उन शल्योंको निकालनेके लिये यंत्र, शस्त्र, क्षार, अग्नि आदि के प्रयोग करना पडता है । जिस प्रकार समस्तप्राणियों में आठ प्रकारके कर्म होते हैं उसी प्रकार संख कर्म के छेदन, भेदन, लेखन, वेधन, एषण, हरण, (आहरण ) विस्रायण, सीबन इस प्रकार आठ भेद हैं । विविध प्रकार के जो शस्त्र बतलाये हैं उन में से जिन जिनकी जहां जरूरत हो उनसे, शस्त्रकर्म में निपुण वैद्य छेदन आदि कर्मों को विधिक अनुसार करें । इसी प्रकार विद्रधि रोग के जिन अवस्थाओं में जिन शस्त्रकर्मोकी जरूरत होती हैं उनकोबार २ अवश्य प्रयोग करना चाहिये । शरीरगत सम्पूर्ण शल्यों (बाण अन्य कांटे आदि ) को निकालने केलिये ( सर्व यंत्रों से श्रेष्ठ ) कंकयक्त्र ( जो कंकपक्षी के चोंच के समान हो) इस अन्वर्थ नामके धारक महान् यंत्र होता है उसे भी तस कार्यों में प्रयोग करें ॥३०॥३१॥ विशेष-शरीर में कोई कांटा घुसकर मनुष्य को तकलीफ देता है उसी प्रकार बार बार कष्ट पहुंचाने वाले, शरीर के अंदर गये हुए तृण, काष्ट, पाथर, लोहा, बाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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