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________________ स्वास्थ्यरक्षणाधिकारः हीनायुर्विदितविलक्षणस्य साक्षा तत्स्वास्थ्य प्रवरवयो विचार्यतेऽतः ॥ ४७ ॥ भावार्थ:-जिसके हाथ व पाद अत्यंत कोमल, मांस भरित, स्निग्ध, अशोक के कोपल या कमलके समान हो एवं अनेक शुभसूचक रेखावोंसे युक्त होकर निर्मल हों, जिसके दोनों कर्ण मनोहर व दीर्घ हैं अत्यधिक मांससे युक्त हैं दोनों नेत्र नीलकमलके समान हैं, दांत मोती या रसपूर्ण अनारदानेके समान हैं, ललाट व केश स्निग्ध, उन्नत व दीर्घ हो, जिसका श्वास व दृष्टि लंबे हैं, बाहु पुष्ट हो, अंगुलि, नख, मुख, नासिका, ये स्थूल हों, रसनेंद्रिय, गला, उदर, शिश्न, जंघा ये हस्व हों, संधिव नाभि गढे हुए हों, गुल्फ छिपा हुआ हो, जिसकी छाती अत्यंत विस्तृत हो, स्तन व भ्रूके बीच में दीर्घ अंतर हो, शिरासमूह बिलकुल छिपा हुआ हो, जिसको स्नान करानेपर या कुछ लेपन करनेपर पहिले मस्तक को छोडकर उर्च शरीर ( शरीर के ऊपर का भाग) सूखता हो फिर अधोशरीर एवं अंतमें मस्तक सूखता हो, जन्मसे ही जिसका शरीर रोगमुक्त हो और जो धीरे २ बढरहा हो, जिसकी बुद्धि शिक्षा कला आदिको जाननेकेलिये सशक्त हो व इंद्रिय दृढ हों, जिसका केश स्निग्ध, बारीक व मृदु हों, एवं जिसके रोमकूप प्रायः दूर २ हों, इस प्रकारके सुलक्षणोंसे युक्त शरीर को जो धारणा करता है वह विपुल ऐर्थ संपन्न व दीर्घायुषी होता है । इन सब लक्षणोंसे युक्त मनुष्य पूर्ण ( दीर्घ ) आयुष्यके भोक्ता होता है । यदि इनमेंसे आधे लक्षण पाये गये तो अर्ध आयुष्यका भोक्ता होता है, एवं इनसे विलक्षण शरीरको धारण करनेवाला हीनायुषी होता है, मनुष्यके वय, स्वास्थ्य आदि इन्ही लक्षणोंसे निर्णीत होते हैं ॥४१॥४२॥ ४३ ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ ४६ ॥ ४७ ॥ ___ उपसंहार. एवं विद्वान्विशालश्रुतजलधिपरंपारमुत्तीर्णबुद्धिशैत्वा तस्यातुरस्य प्रथमतरमिहायर्विचार्योर्जितश्रीः व्याधस्तत्वज्ञतायां पुनरपि विलसनिग्रहचापि यत्नम् कुर्याद्वैद्यो विधिज्ञः प्रातेदिनममलां पालयन्नात्मकीर्तिम् ॥ ४८॥ भावार्थ:--इस प्रकार शास्त्रसमुद्रपारगामी विविज्ञ विद्वान् वैच को सबसे पहिले उस रोगीकी आयुको जानकर तदनंतर उसकी व्याधिका परिज्ञान करलेना चाहिये एवं विधि पूर्वक उस रोगकी निवृत्तिके लिये प्रयत्न करें। इस प्रकार चिकित्सा कर, अपनी कीर्तिकी प्रतिदिन रक्षा करें। ।। ४८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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