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कल्याणकारके
... वमनावरोधज अवरोधज उदावर्त. . छा वेगे सन्निरुध्दे तु कुष्ठं । येरेवान्नं दोपजालदिग्धम् . शोकानंदाद्यश्रुपाते निरुद्ध । मूर्धाक्षणावीत्रामयारसंभवति ॥ ७३ ॥
भावार्थ:----बमनको रोकने पर जिन दोपोंसे वह रुद्ध अन्न दूषित होजाता है. उन्ही दोषों के आधिक्य से कुष्ट उत्पन्न होता है । शोक व आनंद से उत्पन्न आंसुवोंके सेकनेसे शिर ब नेत्र संबंधी रोग उत्पन्न होते हैं ॥७३॥
क्षुतनिरोधज उदावर्तः नासा वकवाक्ष्युत्तमांगोद्भवास्ते । रोगास्स्युर्वंग निरुद्ध क्षुतस्य ॥ सप्तोदावर्तेषु तेषु क्रिया विद्वानन्याधेः सञ्चिकित्सा प्रकुर्यात् ॥ ७४ ॥
भावार्थ:-छींक का निरोध करने पर नाक, मुख, नेत्र व मस्तक संबंधी रोग उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार सात प्रकार के उदावर्त रोगों में बातच्याधिकी चिकित्साका प्रयोगा कुशल बेंच करें ।। ७४ ॥
शुक्रोदावर्त व अन्योदावर्त की चिकित्सा. शुक्रौदावर्तिमत्यंतरूपा । मर्त्य स्पर्शेर्हर्षयेत् कामिनी प्राक् ॥ सर्वोदावर्तेषु यद्यच्च योग्यं । तत्तत्कुर्यात्तत्र तत्रौषधिज्ञः ॥ ७५ ॥
भावार्थ:---- शुक्रोदावर्त रोगसे पीडित मनुष्य को अधिकारूपवती स्त्री, अपने सुख स्पर्श आदिसे संतोषित करें । इसी प्रकार सर्व प्रकार के उदावर्त रोगोंमें भी कुशल वैध र्जित को जो अनुकूल हो वैसी क्रिया करें ।। ७५ ॥
अथ हिकारोगाधिकारः ।
हिक्कानिदान. यदा तु पवनो मुहुर्महरुपैति वक्त्रं भृशं । ल्पिहांत्रयकृदाननान्यधिकवेगतः पीडयन ।। हिनस्ति यतएव गावोषमहिनम्तमः प्राणिनां ।
वदनि जिनवल्लभा विषम र पदि कामयं ।। ७६॥ भावार्थ--जब प्रकुपित वायु विहा (लिली (नांगली) यकृत (जिगर) इन को अत्यधिक वेग से पीडित करता हुआ और हिग हिम सब करता हुआ, ऊपर
१ विरुद्ध इाते पाठांतरं ! बिदग्धं दूपितं ]
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