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कल्याणकारके
तत्रादितोऽनिलविपर्ययमन्यतश्च ।
वांतं स वातविधिना समुपक्रमेत ॥ २५५ ॥ ____ भावार्थः--वातादिक दोषोंसे उत्पन्न समस्त नेत्ररोगोंको शमन करनेके लिये योग्य औषधि विधि संक्षेपसे कहेंगे । पहिले, मारुतपर्यय, अन्यतोवात, इन दोनों रोगोंका वात्तज नेत्ररोगों वातभिष्यंद आदि । में कहे गये चिकित्साविधिसे उपचार करें ॥ २५५ ॥
शुष्काक्षिपाकमें अंजनतर्पण. स्तन्योदकेन घृततैलयुतेन शुंठी-। चूर्ण सपूरकरसेन ससैंधवेन ॥ पृष्टं तदंजनमतिप्रवरं विशुष्के ।
पाके हितं नयनतर्पणमाज्यतैलैः ॥ २५६ ॥ ... भावार्थ:-स्तनदूध, घृत व तेल सेंधानमक, बिजौरा निंबूके रसमें सोंठके चूर्णको अच्छीतरह पीसकर अंजन तैयार करें। वह अंजन शुष्काक्षिपाकरोगके लिये अत्यंत हितकर है। एवं घृत, तैलसे नेत्र को तर्पण करना भी इस रोग में हितकर होता है ॥ २५६॥
शुष्काक्षिपाक में सेक. सिंधूत्थचूर्णसहितेन हितं कदुष्ण-। तैलेन कोष्णपयसा परिपेचनं च ॥ वातोद्धतानखिलनेत्रगतान्विकारान् ।
यत्नादनेन विधिना समुपक्रमेत ॥ २५७ ॥ भावार्थ:-शुष्काक्षिपाक रोगमें सेंधानमक को अल्प उष्ण तेलमें मिलाकर सेचन करना एवं थोडा गरम दूधसे सेचन करना हितकर है । इस प्रकारके उपायोंसे समस्त वातविकारसे उत्पन्न नेत्ररोगोंको बहुत प्रयत्नके साथ चिकित्सा करें ॥२५॥
पित्तजनेत्ररोगचिकित्साधिकारः।
सर्वपित्तजनेत्ररोगचिकित्सा. पित्तोत्थितानखिलशीतलसंविधानः ।
सर्वापयानुपचरेदुपचारवेदी ॥ .. १भिन्नं इति पाठांतरं
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