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________________ रसायनविधिः । पाताले चांतरिक्ष दिशि दिशि विदिशि द्वीपशैलाधिदेशे । यत्रेच्छा तत्र तत्राप्रतिहतगतिकश्चाद्वितीय बलं च ॥ स्पर्शी दिव्यामृतांगः स्वयमपि सकलान् रोगराजान्वितु । शक्तश्चायुष्यमामोत्यमलिनचरितः पूर्वकोटीसहस्रम् ॥ ६३ ॥ भावार्थः----इस भूमिक अहर चद्रामृत नामका औषधिविशेष है । उसकी विशेषता यह है कि वह अपने पत्तोंके साथ कृष्ण और शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन चंद्रके समान हानि और वृद्धि को प्राप्त होता है अर्थात शुक्ल पक्ष में रोज बढते २ पूर्णिमाके दिन बिलकुल हराभरा होता है। कृष्णपक्षम प्रतिदिन घटता जाता है और प्रत्येक अमावास्या के रोज उसकी सब पत्तियां झडजाती हैं और बहुत काठेनता से मिलता है। यह तालाव गहरीनदी, और पर्वत प्रदेशों में उत्पन्न होता है । जिनमत के स्याद्वाद के समान, इस का वीर्य नाम, स्वरूप आदि, एकानेक स्वभावयुक्त हैं । तात्पर्य यह कि इसकी शक्ति आदि अचिंत्य है । इस औषधिको सेवन करने के लिये एक ऐसा मकान बनावें जो तीन दीवाल, तीन मंजिल का हो और तीन प्रदक्षिणा देने के ही बाद जिस के अंदर प्रवेश हो सकें । इस के गर्भगृह ( बीचवाला कमरा ) में, रसायन सेवन करनेवाला, बंधुबांधव परिचारक आदिकों से वियुक्त होकर अकेला ही बैठे । और १६ तोले स्त्री के दूध में इस चद्रांमृत को मिलाकर निश्चल चित्त से, प्रातःकाल में पीवें । पश्चात् मौनधारण करते हुए दर्भशय्या पर सोवें । सम्पूर्ण आहार को छोडकर, प्यासी के समान बार २ केवल ठण्डा पानी पीयें । उस के बाद उसे, अच्छीतरह वमन विरेचन होकर कोष्ट की शुद्धि होती है । इस प्रकार जिस के शरीर से मल, दोष आदि निकल गये हों जो धूलिशय्या ( जमीन ) में पडा हो, क्षुधा से पीडित हो उस को कुटुंबीजन, केवल दूध पिलावें । फिर चटाईके ऊपर लेटकर मौन धारण करें संपूर्ण आहारोंका त्याग करें। प्यासी के समान वार२ ठण्डा पानी पीलेवें, उसके बाद उसे अच्छीतरह वमन और रेचन होकर उसकी कोष्टशुद्धि हो जायगी तब उसे ऊंची शय्या (पलंग) पर सुलावें । क्षुधारोगसे पीडित उसको कुटुंबीजन केवल दूध पिलावें । प्रतिनित्य (वमन विरेचन होनेके बाद ) उसे इसी प्रकार सुगंधयुक्त गरमकरके ठण्डा किया हुआ दूध पिलावें । एवं इस अमृतके योगसे उसके शरीर में शक्ति आई मालुम पडनेपर मालिश, स्नान, अनुलेपन वगैरह करावें, एवं चावलकी भात वी दूधके साथ दिनमें एकबार खिलायें । इस प्रकारका प्रयोग एक महिने तक करें। तदनंतर यह पैर में जूता, मोजा वगैरह पहन कर, गरम कोर्ट वगैरह से शरीरको ढककर, शिरमें साफा बांधकर, अपने परिवार के लोगोंको साथ लेकर बाहर रात में निकलने का अभ्यास करें। इस प्रकार अग्नि, वायु, ठण्ड गरमी और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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