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________________ रसरसायनसिध्यधिकारः। उसे मृदु अग्नि के द्वारा पकाकर उस में दो हरीतकी मिलावें । जिस से वह शुद्ध घृत तैयार होता है। - उस घत को प्रतिदिन पीनेपर तत्क्षण यह मनुष्य मदोन्मत्त हाथी के समान बलवान् व तेजोयुक्त हो जाता है । उस के साथ एक पल प्रमाण रसका सेवन करें तो भयंकरसे भयंकर रोग भी दूर होते हैं। उस घृत के साथ एक पल प्रमाण सुवर्णभस्म को मिलाकर नस्य प्रयोग भी कर सकते हैं ॥४८॥ १९ ॥ सिद्धघृतामृत. अथ घृतपलमेक द्वे रसस्यादये द्वे ।। पयसि पलचतुष्कं पाचितं कोहपात्रे ॥ मृदुतरतुषवन्ही क्षीरजीर्णावशेषं । घृतममृतसमानं देवतानां च पूज्यम् ॥ ५० ॥ भावार्थ:--एक पलप्रमाणघृत, दो पल प्रमाण रस, चार पल प्रमाण दूध इन को लोहे के पात्रमें डालकर भूसे की मृदु अग्नि से पकावें । जब वह दूध सब के सब जीर्ण होकर केवल वृत ही घृत रहता है वह अमृतके समान होजाता है एवं वह देवताना को भी पूज्य है ॥ ५० ॥ रसग्रहण विधि. व्योमव्यातसुतीक्ष्णमाक्षिकसमग्रासं गृहीत्वा स्फुटं । वन्ह निश्चलतां गतं रसवरं भूमौ निधायादरात् ।। तस्मात्स्तोकरसं प्रगृहय कनकं पादं प्रदायाहृतिं । दीपेनान्विह जीर्णयेदिति मया दीपक्रिया वक्ष्यते ॥ ५१ ॥ भावार्थ:-जो रस सिद्ध हो चुका है जिसे अग्नि में रखकर उसकी निश्चलता से परीक्षा कर चुके हैं उस को आकाश में व्याप्त सूक्ष्म मक्खियों के जितने प्रमाण में लेकर जमीनपर रखें, फिर उस से थोडासा रस लेकर उस में पाव हिस्सा सुवर्णभरम मिलावें, उस को सेवन करें। जिम के ऊपर दीपन प्रयोग करने पर वह गृहीतरस जल्दी जीर्ण होता है । इसलिये अब पिन प्रयोग कहा जाता है ॥ ५१॥ दीपनयोग दीपांस्तावदलतकानि पटलान्याहत्य रक्तोज्वलान् । वगैर्गन्धकसद्विषैस्तनरसेनामर्दनैलेपयेत् ॥ ... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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