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कल्याणकारके
तत्रास्थाप्य रसं गृहीतकनकं बध्वा च सूक्ष्मांबरो - । त्खण्डैः पुट्टालिकां करंजतिलजैरादीपयेद्दीपिकाम् ॥ ५२ ॥
भावार्थ:- सबसे पहिले दीपों के पात्रपर लाख के रस, गंधक वर्ग व विष वर्ग इनको स्तनदुग्ध के साथ मर्दन कर लेपन करना चाहिये । फिर उस पात्र में कनक मिश्रित रसको रखकर एक पतले कपडे से उसे बांध कर फिर उस दीप को कंजा व तिल तैल से दीपित करना चाहिये ॥ ५२ ॥
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तत्र प्रलेपनविधावतिरंजकः स्यात् । उच्छिनामकरसः कृतकल्कको वा ॥ योऽयं भवेदधिकवेदकशक्तियुक्तो । लोस्सहैव परिवर्तयतीह बद्धः ।। ५३ ॥
भावार्थ:- इस प्रकार की प्रलेपनक्रिया से वह रस अत्यंत उज्वल होता है । और अधिक शक्ति का अनुभव कराता है एवं रस व कल्को में वह उत्कृष्ट रहता है । इतना ही नहीं सिद्धरस शरीर के प्रत्येक धातुवों का परिवर्तन करा देता है ॥ ५३ ॥
रससंक्रमणौषध.
एवं यद्धविशुद्धसिद्धरसराजस्येह संक्रामणं । वक्ष्ये माक्षिकका कविनलिका कर्णामले माहिषं ॥ स्त्रीक्षीरक्षतजं नरस्य वटपी प्रख्यातपारापती । श्रृंगी टंकण चूर्ण मिश्रितमधूच्छिष्टेन संक्रामति ॥ ५४ ॥
भावार्थ:- इस प्रकार विधि प्रकार सिद्ध विशुद्ध सिद्ध रसराज का वर्णन किया गया है। अब उस रसराजका संक्रमण का वर्णन करेंगे अर्थात् जिन औषधियों से उस का संक्रमण होता है उन का उल्लेख करेंगे । सोनामखी, काकबिट्, नली (सुगंध द्रव्यविशेष) भैंस का कर्णामल, खीदुग्ध, पारावतीवृक्ष, मेढा सिंगी, टंकण [ सुहागा ] चूर्ण इनसे मिश्रित भोम से उस रसराजका संक्रमण होता है ॥ ५४ ॥
इत्येवं दीपिकांतामवितथनिलमधानिशास्त्रप्रवद्धा । व्याख्याता सत्क्रियेयं सकलतनुरुजाशांतयं शांतचितैः ॥ उग्रादित्यैर्गुनीरनवरत महादानशीलस्सुशीलैः । कृत्वा युक्त्यात्र दत्वा पुनरपि च धनं दातुकामैरकामैः ॥ ५५ ॥
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