________________
(५२२)
कल्याणकारके
तन्मूत्राशुद्धशुक्लाम्बरपरिगलितं क्षारकल्पेन पक्त्वा । तस्मिन् दद्यादिमानि त्रिकटुकरजनीकुष्ठमंजिष्ठकोग्रा-॥ वेगागारोत्थधूम तगररुचकहिंगूनि संचूर्ण्य वस्त्रैः ।
श्लक्ष्णं चूर्ण च साक्षानिखिलविषहरं सर्वथैतत्प्रयुक्तम् ॥ १४३ ।। भावार्थ:-आक, अकोल, चित्रक, सफेद कनेर, [ श्वेतकरवीर ] नागरमोथा, हिज्जलवृक्ष, [ समुद्रफल ] प्रग्रह ( किरमाला ) अश्मंतक, लिसोडा, आंवला, अर्जुनवृक्ष, (कुहा ) अमलतास, सोंठ, मिरच, पीपल, कैथ, थूहर, घोडा, [श्रृगालकोलि-एक प्रकार का बेर] बोल, चिरचिरा, गिलोय, चंदन, बडी कटेली, छोटी कटेली, शमीवृक्ष अपराजिता [ कोयल ] पाढल, सम्हालू, करंज, अरिमेद ( दुर्गंधयुक्त खैर ) गोजिव्हा, सर्जवृक्ष, ( रालका वृक्ष ) भोजपत्र वृक्ष, विजयसार, तिलकवृक्ष, [ पुप्पवृक्षविशेष ] अश्वत्थवृक्ष, सोनलता, अंधिकवक्ष, टुंटूक, अशोक, ६.भारी, देवदारु, सिरस, बच, शिग्रु, [ सेजन ] मधुशिग्रु, उणीकरंज, भिलावा, सरलवृक्ष, ( धूपसरल ) दोनों प्रकार के पलाश, [ सफेद लाल ] कलिहारी, इन औषधों के मूल छाल पत्रादिक को जलाकर भरम करें । इस भस्म को छहगुना गोमूत्र में अच्छीतरह मिलाकर साफ सफेद वस्त्रा से छानकर क्षाराविधि के अनुसार पकावें । पकते समय उस में सोंठ, मिरच, पीपल, हलदी, कूट, मंजीठ, बच, वेग, गृहधूम, तगर, कालानमक, हींग इन को वस्त्रागालित चूर्ण व.र के मिलावें । इस प्रकार सिद्ध क्षारागद को नस्य, अंजन, आलेपन आदि कार्यों में प्रयोग करने पर सर्वप्रकार के विषोंको नाश करता है ॥ १४१ ॥ १४२ ॥ १४३ ॥
सर्वविषनाशकअगद. प्रोक्तेऽस्मिन् क्षारसूत्रं लवणकटुकगंधाखिलद्रव्यपुष्पा- 1 ण्याशोष्याचूण्यं दत्वा घृतगुडसहितं स्थापित गोविषाणे ॥ तत्साक्षात्स्थावरं जंगमविषमधिकं कृत्रिमं चापि सर्व ।
हन्यानस्यांजनालेपनबहुविधपानप्रयोगैः प्रयुक्तम् ॥ १४४ ॥ भावार्थ:--अन्य अनेक प्रकार के क्षार, गोमूत्रा, लवण, त्रिकटु सम्पूर्ण गंध द्रव्य, व सर्व प्रकार के पुष्पों को सुखाकर चूर्ण कर के घी गुड के साथ उपर्युक्त योग में मिलावें । पश्चात् उसे गाय के सींग में रखें । उस औषधि के नस्य अंजन, लेपन व पान आदि अनेक प्रकार से उपयोग करें तो रथावर, जंगम व कृत्रिम समस्त विष दूर होते हैं ॥ १४४ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org