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________________ विषरोगाधिकारः। (५२३) AAAAAAAAvv annanommammons विषरहितका लक्षण व उपचार. प्रोक्तैस्तीविषापहैरतितरां सद्भेषजैनिर्विषी-। भूतं मर्त्यमवेक्ष्य शांततनुसंतापप्रसन्नेंद्रियम् ॥ कांक्षामप्यशनं प्रतितिमलं सत्स्यायनीली गुरू-। न्यन्मूलैश्च ततोऽयपक्वमखिलं [?] दद्यात्स पेयादिकं ।। १४५ ॥ • भावार्थः--उपर्युक्त तीव्र विषनाशक औषधियों के प्रयोग से जिसका विष उतर गया हो इसी कारण से शरीर का संताप शीत होगया हो, इंद्रिय प्रसन्न हो, भोजन की इच्छा होती हो, मल मूत्रादिक का विसर्जन बराबर होता हो [ ये विषरहित का लक्षण है ] ऐसे मनुष्य को योग्य पेयादिक देवें ॥ १४५ ॥ विष में पथ्यापथ्य आहारविहार. निद्रां चापि दिवाव्यवायमधिकं व्यायाममत्यातपं । क्रोधं तैलकुलुत्थसत्तिलमुरासौवीरतक्राम्लिकम ।। त्यक्त्वा तीविषेषु सर्वमशनं शीतक्रियासंयुतं । योज्यं कीटविषेष्वशेषमहिमं संस्वेदनालेपनम् ॥ १४६ ॥ भावार्थ:-सर्व प्रकार के विष से पीडित मनुष्य को दिन में निद्रा, मैथुन, अधिक व्यायाम, अधिक धूप का सेवन व क्रोध करना भी वर्ण्य है । एवं तेल, कुलथी, तिल, शराब, कांजी, छांछ, आम्लिका आदि [ उष्ण ] पदार्थों को छोडकर तीव्रविष में समस्त शीतक्रियाओं से युक्त भोजन होना चाहिये अर्थात् उसे सभी शीतोपचार करें। परंतु यदि कीट का विष हो तो उस में सर्व उष्ण भोजन व स्वेदन, लेपन आदि करना चाहिये। (क्यों कि कीटविष शीतोपचार से बढ़ता है)॥ १४६ ॥ ___ दुःसाध्य विषचिकित्सा. बहुविधविषकीटाशेषलूतादिवर्ग-। रुपहततनुम]षग्रवेगेषु तेषाम् ।। क्षपयति निशितोद्यच्छत्रपातैर्विदार्य । स्वहिविषमिव साध्यस्स्यान्महामंत्रतंत्रैः ॥ १४७ ।। ___ भावार्थः-अनेक प्रकार के विौले कीडे, मकडी आदि के काटनेपर विष का वेग यदि भयंकर होजाय तो वह मनुष्य को मार देता है। इसलिये उस को (विष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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