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विषरोगाधिकारः ।
(५२१)
कीटदष्टलक्षण. लूताशेषोगकीटप्रभृतिभिरिह दष्टप्रदेशषु तेषां । नृणां तन्मदमध्यादिकविषहतरक्तेषु तत्प्रोक्तदोषैः॥ जायंते मण्डलानि श्वयथुपिटकिका ग्रंथयस्तीत्रशोफाः ।
दद्रुचित्राश्च कण्डूकिटिभकठिनसत्कर्णिकाद्युग्ररोगाः ॥ ? ३९ ॥ • भावार्थः-मकडी आदि सम्पूर्ण विषैले कीडों द्वारा काटे हुए प्रदेशों में, उन बिषों के मंद, मध्यम आदि प्रभाव से रक्त विकृत होने से दोषों का प्रकोप होता है जिससे अमेक प्रकार के मंडल [चकत्ते] शोथयुक्त फुन्सी, ग्रंथि ( गांठ ) तीव्रसूजन. दाद, श्वित्रकुष्ठ, खुजली, किटिभ कुष्ठ, कठिन कर्णिका आदि भयंकर रोग उत्पन्न होते हैं १३९ ।।
कीटभक्षणजन्य विषचिकित्सा. अज्ञानात्कीटदेहानशनगुणयुतान् भक्षयित्वा मनुष्याः। नानारोगाननेकप्रकटतरमहोपद्रवानाप्नुवंति ॥ तेषां दृषीविषघ्नैरभिहितवरभैषज्ययोगैः प्रशांति ।
कुर्यादन्यान्यथार्थ निखिलविषहराण्यौषधानि ब्रवीमि ॥ १४० ॥ भावार्थ:-जो मनुष्य भोजन करते समय अज्ञान से भोजन में मिले हुए कीडे के सारीर को खा जाते हैं, उस से अनेक प्रकार के घोर उपद्रवों से संयुक्त रोग उत्पन्न होते हैं। उसमें दूषीविष नाशार्थ जिन औषधियों का प्रयोग बतलाया है उन से चिकित्सा करनी चाहिये। आगे और भी समस्तविषों को नाश करनेवाले औषधियोग को कहेंगे ॥ १४०॥
क्षारागद. अर्कीकोलाग्निकाश्वांतकघननिचुलपग्रहाश्मंतकानां । श्लेष्मातक्यामलक्यार्जुननृपकटुकीकपित्थस्नुहीनाम् ।। घोंटागोपापमार्गामृतसितबृहत्ती कंटकारी शमीना-। मास्फोतापाटलीसिंधुकतरुचिरिबिल्वारिमेदद्रुमाणाम् ॥ १४१ ॥ गोजीस|रुभूर्जासनतरुतिलकपलक्षसोमांघिकाणां । टुंटूकाशोककाश्मर्यमरतरुशिरीषोग्रशिग्रुद्वयानाम् ॥ उष्णीकारंजकारुष्करवरसरलोद्यत्पलाशद्वयानाम् । नक्ताहानां च भस्माखिलमिह विपचेत् षडणैर्मूत्रभागैः ॥ १४२ ॥
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