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________________ (४६) कल्याणकारके भावार्थ:-...अत्यंत उष्णताका अनुभव होना, कंठशोषण आदि का अनुभव होना मूर्छा होना, दाह होना, मुखसे धुंआ निकलता सा अनुभव होना, भोजनमें अरुचि होना बहुत क्रोध आना, संताप होना, देह गरम रहना, अधिक पसीना आना, अधिक बडबडाना ये सब विकार पित्त प्रकोपसे उत्पन्न होने हैं ।। ६५ ॥ कफ प्रकोप लक्षण सुप्तत्वकंडूगुरुगात्रतातिश्वेतत्वशीतत्वमहत्वनिद्राः । संस्तंभकारोचकताल्परुकच श्लेष्मप्रकोपोपगतामयास्ते ॥६६॥ भावार्थ:--म्पर्शज्ञान चलाजाना, शरीरका अधिक खुजाना, शरीर भारी होजाना, शरीर सफेद होजाना, शरीरमें शीत मालूम होना, मोह होना, अधिक निद्रा आना, स्तब्ध होना, भोजनमें अरुचि होना, मंद पीडा होना आदि कफके प्रकोपसे होनेवाले विकार हैं अर्थात् उपर्युक्त रोग कफके विकारसे उत्पन्न होते हैं ॥ ६६॥ . प्रकुपित्त दोषीके वर्ण एषां भस्मातिरूक्षः प्रकटतरकपोतातिकृष्णो मरुत्स्यात् । पित्तं नीलातिपीतं हरिततममतीवासितं रक्तमुक्तम् । श्लेष्मा स्निग्धातिपाण्डुः स भवति सकलैः संनिपातः सवर्णैः । दोषाणां कोपकाले प्रभवति सहसा वर्णभेदो नराणम् ॥ ६७॥ भावार्थ:--इन दोषोंके प्रकोप होने पर, मनुष्योंके शरीरमें नीचे लिखे वर्ण प्रकट होते हैं । वातप्रकोप होने पर शरीर भस्म जैसा , कपोत , (कबूतर जैसा ) व अत्यंत काला होता है एवं रूक्ष होता है । पित्त के प्रकोप से , अत्यंत नीला , पीला , हरा , काला , व लालवर्ण हो जाता हैं । कफ के प्रकोप से, चिकना होते हुए सफेद होता है । जिस समय तीनो दोषों का प्रकोप एक साथ होता है उस समय, उपरोक्त तीनों दोषों के वर्ण , ( एक साथ ) प्रकट होते हैं ॥६॥ संसर्गादोषकोपादधिकतरमिहालोक्य दोषं विरोधात्कर्तव्यं तस्य यत्नादुरुतरगुणवद्भेषजानां विधानम् । सम्यक्सूत्रार्थमार्गादधिकृतमखिलं कालभेदं विदित्वा । वैद्येनोद्युक्तकर्मप्रवणपटुगुणेनादारादातुराणाम् ॥ ६८॥ भावार्थः-रोगियों की चिकित्सा में उद्युक्त , गुणवान् वैद्य को उचित है कि आयुर्वेदशास्त्र के कथनानुसार कालभेद , देशभेद , आदि सम्पूर्ण विषयों को अच्छी तरह से जान कर , द्वटुंज , सान्निपातिक आदि व्याधियों में दोषों के बलाबल को , अच्छीतरहसे निश्चय कर, जिस दोष का, प्रकोप हुआ हो उस से विरुद्ध, अर्थात् उसको शमन व शोधन करने वाले, गुणाढ्य औषधियोंके प्रयोग, वह आदरपूर्वक करें ॥६८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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