________________
सर्वोषधकर्मव्यापश्चिकित्साधिकारः ।
में डालकर दस दिन तक रखें । पश्चात् इस उपरोक्त कल्क व उपर्युक्त ( विजयसार कत्था त्रिफला के) काथ व पानी से, एक आढक बहेडे के तैल को मृदु अग्नि के द्वारा पकाकर सिद्ध होने पर एक मजबूत लोहके पात्रा [ घडा ] में रखें । बाद जिस के शरीर पलित [ सफेद बाल से युक्त ] झुरी, व बुढापेसे आक्रांत है ऐसे मनुष्यके [ शरीर] को वमन विरेचनादिक से शुद्ध कर, उसको नियत बंधुओं के साथ, हवारहित मकान में प्रवेश कराकर इस तैल से बहुत यत्न के साथ नस्य देना चाहिये । इस नस्यप्रयोग को बार २ एक मासतक करने पर नासिकागत समस्त रोग दूर होते हैं और उस मनुष्य का मुख कमल के समान सुंदर बनजाता है । वह सब को प्रिय लगने लगता है उतना ही नहीं वह वृद्ध भी जवान के समान हो जाता है। इसलिये यह संपत्तिक सुखदायक शुभकर, व निर्मल है और इसे तैयार करनेवाले को अर्थ [द्रव्य ] की प्राप्ति होती है। इस महान् अक्षतैल को [ तैयार कर अपने प्रियजनों को देना चाहिये ।। १०२॥१०३ १०४।१०५॥
वयस्तम्भक नस्य. शिरीषकोरण्टक गनीलीरसैः पुटं त्रिस्त्रिरनुक्रमेण । सदक्षशंभत्तिलकंगुकारिण्यमूनि बीजान्यथ भावयित्वा ॥१०६॥ पृथराजोभावममूनि नीत्वा विपकतोयेन ततो समेन ।
विमर्थ लब्धं तु सुतैलमेषां सदा वयस्तंम्भमपीह नस्यम् ॥१०७॥ भावार्थ:-बहेडा, सफेद तिल, कंगुका ( फूल प्रियंगु ) अरि ( खदिर भेद ) इन के बीजों को अलग २, सिरस के छाल, कोरंट, भांगरा व नील के रस से क्रमशः तीन २ भावना देनी चाहिये । पश्चात् उस भावित बीजों के चूर्णों को समभाग लेकर उबले हुए पानी के साथ मर्दन करके उस से तैल निकाल लेवें । इन तैलों के नस्य लेने से मनुष्य सदा जैसे के तैसे जवान बना रहता है ॥ १०६ ॥ १०७ ॥
उपसंहार इत्येवं कृतमूत्रमार्गविधिना कृष्णप्रयोगो मया । सिद्धो सिद्धजनोपदिष्टविषयः सिद्धांतसंतानतः ॥ तान्योगान्परिपाल्य साधुगुणसंपन्नाय मित्राय सं- ।
दद्याद्यौवनकारणानकरुणया वक्षाम्यतोऽर्थावहम् ॥ ९०८ ॥ भावार्थ:----इस प्रकार सिद्ध जनों (पूज्य आचार्य आदि मुनिगण ) के द्वारा उपदिष्ट स्वानुभवसिद्ध या अवश्य फलदायक केशों को काले करनेवाले प्रयोगों को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org