________________
बालग्रह भूततंत्राधिकारः।
(१४५) भावार्थ:-इस रोग में दोषों का उद्रेक अल्पप्रमाण व अधिकप्रमाण में होने के कारण से गौण व मुख्य का व्यवहार होता है। इस गौणमुख्य अपेक्षाभेद के कारण यह शोषरोग पृथक् २ दोषज [ वातज, पित्तज कफज ] भी कहा गया है। लेकिन सभी दोषोंके लक्षण एक साथ पाया जाता है और इस की चिकित्साक्रम में भी कोई भेद नहीं है ( एक ही प्रकार का चिकित्साक्रम है ) इसलिये यह राजयक्ष्मा सन्निपातात्मक होता है ॥ ५ ॥
राजयक्ष्माकारण. मलजलगतिरोधान्मैथुनाद्वा विघाता-1 दशनविरसभावाच्लेष्मरोधात्सिरासु ॥ कुपितसकलदोषैर्याप्तदेहस्य जंतो- ।
र्भवति विषमशोषव्याधिरेषोऽतिकष्टः ॥ ६॥ भावार्थ:-मलमूत्र के रोकनेसे, अतिमैथुन करनेसे, कोई घात [ चोट आदि लगना ] होनेसे, मधुरादि पौष्टिकरसरहित भोजन करते करनेसे, रसवाहिनी सिरावो में श्लेष्मका अवरोध होनेसे, प्राणियोंके शरीर में सर्व दोषोंका उद्रेक होनेपर यह विषम ( भयंकर ) शोषरोग उत्पन्न हो जाता है। यह अत्यंत कठिन रोग है ॥ ६॥
पूर्वरूप अस्तित्व. अनल इव सधूमो लिंगलिंगीप्रभेदात् । कथितबहुविकाराः पूर्वरूपैरुपेताः ॥ हुतभुगिह स पश्चाध्यक्तसल्लक्षणात्मा।
निजगुणगणयुक्ता व्याधयोप्यत्र तद्वत् ॥ ७ ॥ भावार्थ-- प्रत्येक पदार्थीको जाननेके लिये लिंगलिंगी भेदको जानना आवश्यक है। जिस प्रकार धूम लिंग है। अग्नि लिंगी है। धूमको देखकर अग्निके अस्तित्व का ज्ञान होता है । इसी प्रकार उन शोष आदि अनेक रोगोंके लिये भी लिंगरूप अनेक पूर्वरूप विकार होते हैं। तदनंतर जिस प्रकार अग्नि अपने लक्षणके साथ व्यक्त होता है । उसी प्रकार व्याधियां भी पश्चात् अपने लक्षणोंके साथ २ व्यक्त होजाते हैं ॥ ७॥
क्षयका पूर्वरूप. बहुबहलकफातिश्वासविश्वांगसादः । वमनगलविशोषात्यग्निमांद्योन्मदाश्च ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org