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________________ रसायनविधिः । उपाय और कालपाकका लक्षण । आमघ्नसद्भेषजसंप्रयोगादुपायपाकं प्रवदंति तज्ञाः ॥ कालांतरात्कालविपाकमाहु- । मृगद्विजानाथजनेषु दृष्टम् ॥ १७॥ भावार्थ:---रोगकी कन्चावटको दूर करनेवाली औषधियोंका प्रयोग करके दोषों को पकाना उपाय पाक कहलाता है । कालांतर में ( अपने अवधिक अन्दर ) स्वयमेव ( विना औषधि के ही ) पकजानेको कालपाक कहते हैं, जो पशु पक्षि और अनाथो में देखाजाता है ॥ १७ ॥ गृहनिर्माणाकथन प्रतिक्षा। तस्माच्चिकित्साविषयोपपन्न । नरस्य सद्वृत्तमुदाहरिष्ये ॥ तत्रादितो वेश्मविधानमेव । निगद्यत वास्तुविचारयुक्तम् ॥ १८ ॥ भावार्थ:-~~~-इसलिये चिकित्सा करने योग्य मनुष्यमें क्या आचरण होना चाहिये यह बात कहेंगे। उसमें भी सबसे पहिले रोगीको रहने योग्य मकानके विषयमें वास्तुविद्या के साथ निरूपण किया जायगा । क्यों कि सबसे अधिक उसकी मुख्यता है ॥१९॥ गृहनिर्मापण विधान। प्रशस्तदिग्देशकृतं प्रधान- । माशागतायां प्रविभक्तभागं ॥ प्राचीनमतं प्रभुमंत्रतंत्र- । यंत्रस्सदा रक्षितमक्षरज्ञः ॥ १९ ॥ भावार्थ:-मकान योग्न ( प्रशस्त ) दिशा देशमें बना हुआ होना चाहिये प्रधान दिशा में भी जो श्रेष्ठ भाग है उसमें होना चाहिये । प्राचीन मंत्र यंत्रके विषयको जाननेवाले विद्वानों द्वारा मंत्रयंत्र तंत्रप्रयोग कराकर रक्षित हो ऐसा होना चाहिये ॥१९॥ सदैव संमार्जनदीपधूप-। पुष्पोपहारैः परिशोभमानन् । मनोहरं रक्षकरक्षणीयम् । परीक्षितस्त्रीपुरुषप्रधेशनन् ॥ २० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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