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________________ ( १०८ ) कल्याणकारके भावार्थ:- पृथ्वी आदि भूतोंके कोपसे रोग उत्पन्न नहीं होते हैं, दोषोंके प्रकोप से ही रोग होते हैं । वर्षफलके खराब होनेसे और मंगल प्रकोप से भी रोगों की उत्पत्ति नहीं होती है । लेकिन कर्मके उदय और रोग उत्पन्न होते हैं ॥ १३ ॥ कमशांति करनेवाली निया ही चिकित्सा है । तस्मात्स्वकर्मोपशमक्रियाया । व्याधिशांतिं प्रवदति तदज्ञाः ॥ स्वकर्माको द्विविधो यथाव- । दुपाय कालक्रमभेदभिन्नः ॥ १४ ॥ भावार्थ: इसलिये कर्मके उपशमनक्रिया ( देवपूजा ध्यान आदि ) को बुद्धिमान् लोग वास्तव में रोगशांति करनेवाली क्रिया अर्थात् चिकित्सा कहते हैं । अपने कर्मका पकना दो प्रकार से होता है । एक तो यथाकाल पकना दूसरा उपायसे पकना ॥ १४ ॥ 1 afauratfare निर्जरा उपायपाको वरोरवीर- । तपः प्रकारैस्ववियुद्धमार्गः ॥ सद्यः फलं यच्छति कालपाकः । कालांतराद्यः स्वयमेव दयात् ॥ १५ ॥ · भावार्थ: उत्कृष्ट वोर वीर तपस्यादि विशुद्ध उपायोंसे कर्मको जबरदस्ती से ( वह कर्मका उदय काल न होते हुए भी) उदयको लाना यह उपाय पाक कहलाता है । इससे उसी समय फल मिलता है । कालांतर में यथासमय पककर स्वयं उदयमें आकर फल देता है वह कारपाक है अपने आयुष्यावसान में ). १५॥ Jain Education International और न कोई आदि ग्रहों के उदीरणा से ही यथा तरुणां फलपाकयोगी । मतिप्रगल्भः पुरुषैर्विधेयः ॥ तथा चिकित्सा प्रविभागकाले । दोपप्रपाको द्विविधः प्रसिद्धः ॥ १६ ॥ भावार्थ: - जिस प्रकार वृक्षके फल स्वयं भी पकते हैं एवं उन्हें बुद्धिमान मनुष्य उपयों द्वारा भी पकाते हैं । इसी प्रकार प्रकुपित दोष भी उपाय (चिकित्सा) और कालक्रम से दो प्रकार से पक्क होते हैं ।। १६॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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